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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व की अपेक्षा न कर सके और अपने धर्मप्रचार के लिए कालान्तर में उन्हें भी इसे स्वीकार करना पड़ा। परवर्तीकाल में तो जैन आचार्यों ने प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत में प्रचुर साहित्य का सर्जन किया। इनके द्वारा लिखित साहित्य अत्यन्त समृद्ध है ।
हमारे आलोच्य जैन मुनि समयसुन्दर संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे । उन्होंने अनेक उत्कृष्ट संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन एवं अध्यापन किया और स्वयं ने भी संस्कृत में लगभग ५० बृहत् ग्रन्थों का प्रणयन किया। यद्यपि जन्मजात वे मरुगुर्जर भाषी थे, किन्तु संस्कृत भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार था। संस्कृत में अष्टाक्षरों के दशलक्षाधिक (प्राप्त अष्टलक्षाधिक) अर्थ प्रस्तुत करना संस्कृत के बहुत बड़े भाषाविद् के ही हाथ की बात हो सकती है।
संस्कृत शब्दावली और व्याकरण पर भी उनका अधिकार था। व्याकरण संबंधी नियमों के आधार पर एक शब्द के अनेक अर्थ उद्घाटित करने में वे सिद्धहस्त थे। उनकी संस्कृत भाषा में सरसता, प्रवाह तथा माधुर्य निहित है । उनकी गद्य-संस्कृत स्वाभाविक, सरल तथा सामान्य पाठक के लिए भी नितान्त रोचक और ग्राह्य है । पद्य-संस्कृत परिमार्जित एवं परिष्कृत है । छन्दोबद्ध होने के कारण उसमें कहीं-कहीं ऐसे शब्द भी समाविष्ट हुए हैं, जो प्रचलित-से प्रतीत होते हैं। उनकी संस्कृत परम्परागत संस्कृत जैसी ही है । शब्दावली भी परम्परागत है ।
समयसुन्दर की संस्कृत-कृतियाँ बड़ी भावपूर्ण और प्रसादगुण से युक्त हैं तथा अलंकारों, सूक्तियों, मुहावरों एवं लोकोक्तियों आदि के प्रयोग से वे ज्यादा प्रभावपूर्ण और हृदयहारी बनी हैं। विद्वत्समाज में भाषण, विवादास्पद विषयों के समाधान और विशिष्ट ग्रन्थों के निर्माण के लिए वे संस्कृत भाषा का ही आश्रय लेते थे । उन्होंने संस्कृत में विशाल साहित्य गुम्फित कर उसे जीवित बनाये रखने में अपना अविस्मरणीय सहयोग प्रदान किया ।
१.२ प्राकृत भाषा
यद्यपि प्राचीन भारतीय भाषाओं में संस्कृत का स्थान शीर्षस्थ है, लेकिन जिस भाषा से यह संस्कारित हुई, उस मूल भाषा का नाम प्राकृत है। स्वयं संस्कृत शब्द भी अपने संस्कारित स्वरूप का परिचायक है । संस्कृत विद्वद्वर्ग या शिष्ट समाज की भाषा थी और प्राकृत जन-साधारण की भाषा । जैन और बौद्ध धर्म के प्रवर्तकों एवं आचार्यों ने जनसाधारण में अपने धर्म का प्रचार करने के लिए प्राकृत को ही अपनाया । कालान्तर में मूल प्राकृतों से, जो जन बोलियाँ थीं, साहित्यिक प्राकृत का विकास हुआ। यह साहित्यिक प्राकृत भी संस्कृत के समान सुगठित भाषा थी ।
समयसुन्दर प्राकृत भाषा के अच्छे ज्ञाता थे । जो भाषा बोलचाल की भाषा न हो, उसमें रचना लिखना दुष्कर होता है, लेकिन उन्होंने इस भाषा में अनेक रचनाओं का
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