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समयसुन्दर की रचनाएँ ४.२.६ प्रस्ताव-सवैया-छत्तीसी
प्रस्तुत 'प्रस्ताव-सवैया-छत्तीसी' का वर्ण्य विषय देवगुरु और धर्म के सम्यक स्वरूप का बोध कराना है। कवि ने प्रस्तुत कृति में यह बताने का प्रयास किया है कि आराध्य देव कौन हो सकता है? उसका वास्तविक स्वरूप क्या है? इसी प्रकार गुरु किस प्रकार का होना चाहिये और धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है? इस कृति में इन्हीं सब बातों की चर्चा की गई है।
इस कृति में कवि ने अपने युग में देव-गुरु-धर्म के नाम पर जो मिथ्या धारणाएँ प्रचलित थीं, उनका न केवल चित्रण किया है अपितु उनकी समीक्षा भी की है।
कवि ने प्रस्तुत कृति में धर्म के नाम पर प्रचलित आत्म-प्रवंचनाओं की भी खरी समीक्षा की है और यह बताया है कि साम्प्रदायिक व्यामोह और दुराग्रहों के कारण धर्म का यथार्थ स्वरूप किस प्रकार ओझल हो जाता है। प्रस्तुत कृति में कवि का उद्देश्य सम्प्रदायगत दुराग्रहों से ऊपर उठकर धर्म के शुद्ध स्वरूप का प्रतिपादन है। उनके युग में साम्प्रदायिक दुराग्रह कितने बढ़ गये थे, इसका सजीव चित्रण हमें इस कृति में मिलता है। कवि ने इस समग्र विवेचन में अपने को एक निरपेक्ष द्रष्टा के रूप में प्रस्तुत किया है। अपनी इस कृति में कवि ने लिखा है -
खरतर तपा आंचलिया पासचन्द आगमीया पुनमिया सार, कडुयामती दिगम्बर लुका, चउरासी गच्छ अनेक प्रकार ।
आंप आपणउ गछ थापइ सगला, खवउं ठोकि आंणी अहंकार, समयसुन्दर कहइ कह्या ज करउ षणि, भगवंत भाखइ ते श्रीकार ॥
मोटउ गच्छ अम्हारउ देखउ, माणस बइसई घणाँ बखांणि, गर्व म करि रे मूढ गमारा, समय-समय अणंती हांणि। सूत्र मांहि एक दसवैकालिक, जती मांति दुपसह सूरि जांणि, समयसुन्दर कहइ कुण जाणइ रे, कहउ गछ रहिस्यइ परिमाणि॥१
'प्रस्ताव-सवैया-छत्तीसी' में कुल ३६ पद्य हैं तो सवैया छन्द में रचित हैं। इसका निर्माण-स्थल खम्भात नगर एवं निर्माण-काल वि० सं० १६९० है। इस तथ्य का उल्लेख कवि ने इस प्रकार किया है -
संवल सोल नेउया वरषे, श्री खंभायत नयर मझारि ॥२ यह छत्तीसी भी समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि' में प्रकाशित है।
१. प्रस्ताव-सवैया-छत्तीसी (१२,१३) २. वही (२६)
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