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समयसुन्दर की रचनाएँ
४.२.१ कर्म - छत्तीसी
प्रस्तुत विवेच्य कृति में कर्म सिद्धान्त का विवेचन है। कर्म की गति समझाने के लिए इसमें २७ प्रसिद्ध व्यक्तियों के जीवन की घटनाओं का उल्लेख हुआ है। कर्मविपाक कितना भयंकर होता है, इसी को प्रस्तुत करना विवेच्य कृति का वर्ण्य विषय है । इसमें ३६ पद हैं। इसकी रचना मुलतान नगर में वि० सं० १६६८ में हुई थी – ऐसी सूचना कृति के अन्त में कवि ने स्वयं दी है । यह कृति 'समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि' में प्रकाशित है।
४.२.२ पुण्य - छत्तीसी
संवत निधि दरसण रस शशिहर, सिधपुर नगर मझार जी | शान्तिनाथ सुप्रसादे कीधी, पुण्य छत्तीसी सार जी ॥
इससे अवगत होता है कि यह कृति सिद्धपुर नगर में विक्रम संवत् १६६९ में रची गई थी। इसमें ३६ पद हैं। पुण्य कर्मों के उदय के फलस्वरूप प्राप्त प्रशस्त तथा उत्तम अवस्था का वर्णन करना ही इस रचना का प्रतिपाद्य विषय है । इस कृति में कवि ने ३१ महापुण्यवान पुरुषों की जीवन- घटनाओं का निर्देश दिया है। यह कृति 'समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि' में प्रकाशित है । ४.२.३ क्षमा-छत्तीसी
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क्षमा मानव का प्रथम धर्म है। यह जैनधर्म का प्राण है। क्रोध-शत्रु से विजय प्राप्त करने का यह अनुपम शस्त्र है। इसे समझाने के लिए कवि ने क्षमा-छत्तीसी में २६ महापुरुषों के दृष्टान्तों को प्रस्तुत किया है। क्षमा का माहात्म्य बताने की दृष्टि से यह कृति महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत रचना जैन समाज में काफी प्रचलित है। इसमें ३६ पद हैं। इसकी रचना नागौर नगर में हुई थी। इसमें कवि ने कृति के रचना-काल का निर्देश नहीं दिया है। 'शत्रुञ्जय रास' में प्राप्त उल्लेखों के आधार पर सूचना मिलती है कि कवि वि० सं० १६८२ के श्रावण माह में नागौर थे। इससे यह अनुमान किया जाता है कि इन्हीं दिनों में कवि ने क्षमा- छत्तीसी की रचना की होगी। इसका सम्पादन 'समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि' में हुआ है।
४.२.४ सन्तोष - छत्तीसी
समयसुन्दर ने इस रचना का निर्माण वि० सं० १६८४ के वर्षावास में लूणकरणसर के श्रावकों के हित के लिए किया था । रचना में प्राप्त सन्दर्भों के आधार पर विदित होता है कि उस समय लूणकरणसर के श्रावकों में पाँच वर्षों से परस्पर मन-मुटाव एवं असन्तोष व्याप्त था, जिसे समाप्त करने के उद्देश्य से कवि ने यह रचना लिखी थी। इसमें कवि को सफलता प्राप्त हुई और चारों तरफ आनन्द की लहरें छा गयीं। इसके कारण कवि को सम्मान और यश प्राप्त हुआ।
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