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________________ समयसुन्दर की रचनाएँ १८९ तत्पश्चात् कविवर लिखते हैं कि एक बार चम्पापुरी में केवली भगवान् पधारे। चम्पक ने उनसे अपने जीवन की विविध घटनाओं के बारे में पूछा, तो वे कहते हैं - समुलिका नगरी के कुटिल बुद्धिवाला भवदत्त एवं सरल स्वभावी भवभूति तापस मरकर यक्ष हुए। फिर भवदत्त का जीव अन्यायपुर-पाटण में वंचनामति सेठ हुआ और भवभूति पाडलीपुर में महासेन नाम का क्षत्रिय हुआ। महासेन तीर्थयात्रा करते हुए अन्यायपुर पहुँचा। वहाँ उसने वंचनामति के यहाँ अपनी गठड़ी धरोहर के रूप में रखी, जिसमें पाँच बहुमूल्य रत्न भी थे। महासेन के तीर्थयात्रा करके लौटने पर सेठ उसे पहचानने और रत्न लौटाने से इंकार कर बैठा। आखिर उसने कपटकोशा नामक एक वेश्या का आश्रय लिया। वेश्या ने अपने दावपेच से महासेन को रत्न दिला दिये। वणिक, जो अब तक लोगों को ठगता रहा, एक वेश्या द्वारा स्वयं ठगा गया। एक बार महासेन के देश में दुष्काल पड़ा, जिसका चित्रण छठी ढाल में करते हुए कवि ने वि० सं० १६८७ के दुष्काल से उसकी तुलना की है। महासेन ने इस अकाल के समय वे पाँच रत्न विक्रय कर धान्यादि से अकालग्रस्तों का बड़ा उपकार किया। उसकी पत्नी गुणसुन्दरी ने भी दीन-अनाथों की बहुत सेवा की। इसी काल में महाभयंकर व्याधिग्रस्त एक वृद्धा की शुश्रूषा की। . केवली भगवान् ने कहा - महासेन के भव में तुमने जो अनुकम्पादान दिया, उसके प्रभाव से तुम इस भव में बड़े भारी सेठ हुए और गुणसुन्दरी का पुनर्जन्म इस तिलोत्तमा के रूप में हुआ। जिस वृद्ध की तुमने सेवा की, उसने इस भव में तुम्हारा पोषण किया। वंचनामति ने तुम्हारे रत्न लिये, अब तुम उसके ९६ करोड़ के अधिपति बने । गत भव में तुमने कुल मद किया, अत: इस भव में दासी-पुत्र बने। वंचनामति को अपमानित किया। अतः उसने तीन बार तुम्हें मारने का प्रयत्न किया। पूर्वभव सुन चम्पक और तिलोत्तमा ने प्रव्रज्या लेली। शुद्ध संयम पालकर देव हुए और भविष्य में चम्पक मोक्षगामी होगा। अन्त में कवि ने लिखा है कि मैंने वि० सं० १६९५ में अपने शिष्य के आग्रह से जालोर में अनुकम्पादान पर इस दृष्टान्त-आख्यान का प्रणयन अप्रमत्त होकर किया - अनुकंपा ऊपर कह्यो, चम्पक सेठिनो दृष्टान्तो रे । अनुकम्पा सहु आदरो, एक थी छै मुगति एकान्तो रे॥ सम्वत् सोल पंचाणूऐ, मैं जालौर माहे जोड़ी रे। चम्पक सेठ नी चौपाई, अंग आलस ऊंघ छोड़ी रे ॥ समयसुन्दर शिष्य तेहना, तिण चौपाई कीधी एहौ रे। शिष्य तणै आग्रह करी, जे ऊपर अधिक सनेहो रे॥१ १. चम्पक-श्रेष्ठि-चौपाई (२.८.१४-१५,१७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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