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समयसुन्दर की रचनाएँ
१८५ प्रतिक्रमण करके वह उनसे वर्षावास में हुई भूलों/त्रुटियों के लिए उनका चरण-स्पर्श कर क्षमा-याचना करने लगा। संयोगवश सेलकमुनि निद्राधीन थे। चरण-स्पर्श से वे जग पडे
और शिष्य पर बहुत क्रोधित हुए। इस अपराध के लिये भी मुनि ने पुनः क्षमा मांगी। तब सहसा उन्हें आत्मबोध हुआ। उन्होंने कृत कार्यों के लिए प्रायश्चित किया और उन्होंने श्री शत्रुजय तीर्थ पर समाधिपूर्वक मृत्यु को वरण किया। कवि भी द्वितीय खण्ड के समापन को वरण करता है।
इस रसप्रद रास की हस्तलिखित पाण्डुलिपि अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में उपलब्ध है, जिसका गूर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशन भी हो चुका है। ४.१.१२ क्षुल्लकऋषि-रास
___इस रास में ५ ढालें हैं। यह रास 'क्षुल्लकऋषि-रास', 'क्षुल्लक-रास' एवं 'क्षुल्लककुमार-रास'- तीनों नामों से प्रसिद्ध है। कवि ने भी तीनों नामों को प्रयुक्त किया है। यद्यपि इसकी कथावस्तु संक्षिप्त है, परन्तु समयसुन्दर ने संक्षेप में भी इस कथा को बड़ी कुशलता से ग्रंथित किया है। इसकी लघुता ही उसके त्वरित विकास में सहायक बनी है। कथासार इस प्रकार है - . अयोध्या नामक नगरी में पुण्डरीक राजा राज्य करता था। उसका भाई कुण्डरीक
था, जिसकी पत्नी यशोभद्रा थी। पुण्डरीक ने यशोभद्रा के रूप-सौन्दर्य पर मोहित होकर प्रणय-याचना की। यशोभद्रा को पुण्डरीक के कामासक्त अनुचित वचन सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने उसे कौटुम्बिक संबंध एवं लोकलज्जा की बात कही, किन्तु पुण्डरीक उस पर इतना आसक्त था कि उसने उसे प्राप्त करने के लिए अवसर पाकर अपने भाई कुण्डरीक ही हत्या कर डाली और यशोभद्रा के साथ बलात्कार करना चाहा। सतीत्वरक्षण के लिए यशोभद्रा वहाँ से भागकर श्रावस्तीनगरी में पहुँच गई, जहाँ उसने एक साध्वी के उपदेश से प्रभावित होकर जिनदीक्षा अंगीकार कर ली।
___जब यशोभद्रा दीक्षित हुई, तब वह गर्भवती थी। कुछ दिन बाद उसकी गुरुवर्या को सगर्भा होने की शंका हुई। गुरुवर्या द्वारा पूछने पर यशोभद्रा के बताया कि यह गर्भ उसके पति का है। गुरुवर्या ने प्रसूति के लिए सारी व्यवस्था करवा दी। उसने एक बालक का प्रसव किया, जो क्षुल्लककुमार के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसका पालन-पोषण शय्यातरी श्राविका ने किया।
आठ वर्ष के अल्पवय में ही क्षुल्लककुमार ने यशोभद्रा के कहने से अजितसूरि के पास संयम ग्रहण कर लिया। क्षुल्लक संयम-जीवन में होने वाले कष्टों के कारण संयम से विचलित हो गया। यौवन-अवस्था होने के कारण वह कामग्रस्त हो गया। अतः उसने गृहस्थ-जीवन अंगीकार करना चाहा। सभी ने उसे यह कार्य न करने की प्रेरणा दी, किन्तु उस पर उनका कोई प्रभाव न पड़ सका। अन्ततोगत्वा साध्वी यशोभद्रा (माता) ने
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