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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व पास जाकर पंचमुष्टि लोच की। 'ज्ञाताधर्मकथा' के अनुसार तो थावच्चासुत भगवान् के पास गया और पंचमुष्टि लोचकर दीक्षित हो गया।
अस्तु, थावच्चासुत ऋषि ने तपश्चर्या तथा शास्त्राभ्यास में असाधारण सिद्धि प्राप्त की। श्रुत-केवली बनने पर नेमिनाथ भगवान् की आज्ञा से वे अपनी शिष्य-सन्तति के साथ विचरण करने लगे। पाद-पर्यटन करते हुए एक दिन वे 'सेलक' नगर पहुँचे। वहाँ के राजा सेलक के नाम से उस नगर का नाम भी सेलक था। सेलक राजा ने थावच्चासुत का उपदेश-श्रवण किया। मुनि की आर्ष-वाणी से प्रभावित होकर उसने श्रावक के बारह-व्रत अङ्गीकार किये।
__थावच्चासुत ऋषि विविध अंचलों में श्रमण करते हुए अनुक्रम से सौगन्धिका नगरी आए। उस नगरी में शुक्र नामक एक सांख्य परिव्राजक रहते थे। वे लोगों को शुचिधर्म का उपदेश देते थे। उसी नगरी में सुदर्शन नामक एक धनाढ्य सेठ भी रहता था। शुक परिव्राजक का शुचिधर्मान्तर्गत प्रवचन सुनकर उसने उस धर्म को ग्रहण कर लिया। कुछ वर्षों के पश्चात् जब थावच्चासुत ऋषि इस नगर में पधारे, तो सुदर्शन सेठ ने इनके यथार्थ विनयधर्म को स्वीकार कर लिया। सुदर्शन श्रावकधर्म का आचरण करने लगा। इस बात को जब शुक परिव्राजक ने सुना, तो वे भी सौगन्धिका नगरी आए और अपने भक्त सुदर्शन से मिले। सेठ ने सारी परिस्थिति से उन्हें अवगत कराया। तदर्थ शुक थावच्चासुत से शास्त्रार्थ करने को तैयार हुए, परन्तु शुक ने सिद्धान्त, क्रियाकाण्ड इत्यादि के सन्दर्भ में जो-जो प्रश्न किये, उन सबके अति संतोषजनक उत्तर सुनकर उनकी मनोगत समस्त शंकाएँ दूर हो गईं। शुक उनसे हतने अधिक प्रभावित हुए कि वे अपने हजार शिष्यों सहित उनके शिष्य बन गए।
अन्त में थावच्चासुत महर्षि ने शत्रुञ्जय तीर्थ पर संलेखना व्रत ग्रहण किया और केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त कर अन्त में मुक्ति प्राप्त की।
थावच्चासुत के शिष्य शुक मुनि के उपदेश से सेलकराज ने भी प्रव्रज्या ले ली। शुक और सेलक - दोनों मुनियों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यग्तप की उत्कृष्ट आराधना की। शुक मुनि ने अन्त में शत्रुजय तीर्थ पर ही संलेखनासहित मोक्षपद प्राप्त किया। सेलक प्रव्रजित तो हो गए, लेकिन उन्हें श्रमणधर्म का पालन करना दुष्कर प्रतीत होने लगा। वे अत्यन्त रुग्ण हो गए। उनके पुत्र राजा मण्डुक ने उन्हें औषधोपचार के लिए अपने महल में रखा। औषध में मद्यपान, अतिपौष्टिक आहार आदि देने से सेलक प्रमादग्रस्त हो गये। उनकी धर्म-कर्म से रुचि समाप्त-सी हो गई। वे हर समय निद्रा और प्रमाद की गोद में ही सोये रहते। सेलकमुनि का यह शिथिलाचार देख उनके सभी शिष्य उनका त्याग करके चले गये। केवल पन्थक नामक एक शिष्य गुरु के वैयावृत्य हेतु रुका। उसने उनकी बहुत अधिक सेवा-सुश्रूषा की। एक दिन चातुर्मासिक
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