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समयसुन्दर की रचनाएँ
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तीर्थ (पालिताणा) की महिमा को उजागर करता है । शत्रुंजय जैनों का प्रमुख तीर्थ है । यहाँ संगमरमर के आठ सौ तिरसठ जिन-मन्दिर हैं । उनमें से अनेक कला की दृष्टि से बेजोड़ हैं। शायद ही कोई ऐसा जैनी होगा, जिसने जीवन में एक बार इस तीर्थ की यात्रा की अभिलाषा न की हो, क्योंकि कवि ने ही लिखा है
सेत्रुंज तीरथ सारखउ, नहीं छइ तीरथ कोय । स्वर्ग मृत्यु पाताल मइ, तीरथ सगला जोय ॥ नामइ नवनिध संपजइ, दीठां दुरित पलाय । भेटतां भवभय टलइ, सेवतां सुख थाय ॥ १
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जिण सेतुंज तीरथ नहि भेट्यउ, ते ग्रभवास कहंत रे।
शत्रुञ्जय तीर्थ के माहात्म्य को प्रगट करने वाली अनेक कृतियाँ प्राप्त होती हैं। इनमें धनेश्वरसूरि कृत ' शत्रुञ्जय माहात्म्य', ऋषभदास कृत 'शत्रुञ्जयोद्धार' (सं. १६६७), हंसरत्न कृत 'शत्रुंजय माहात्म्योल्लेख' (सं. १७८२), कक्कसूरि कृत 'शत्रुंजय महातीर्थोद्धारप्रबन्ध' (सं. १६९२) जिनहर्षसूरिकृत 'शत्रुंजयमाहात्म्य', नयसुन्दरकृत 'शत्रुञ्जयोद्धार' (सं. १६३८), शुभशीलगणि कृत 'शत्रुञ्जयकथाकोश' (सं. १५१८), विवेकधीरकृत 'शत्रुञ्जयोद्धार' (सं. १५८७) उल्लेखनीय हैं । ३
१. शत्रुंजय - रास (१ से पूर्व ४-५ ) २. शत्रुंजय - रास (२.२)
३. द्रष्टव्य - जिनरत्नकोश, पृष्ठ ३७२-७३
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कवि का यह 'शत्रुञ्जय माहात्म्य' धनेश्वरसूरि के 'शत्रुञ्जयमाहात्म्य' पर आधारित है - इस बात का उल्लेख स्वयं कवि ने रास के प्रारम्भ में ही किया है । कवि ने यह भी बताया है कि धनेश्वरसूरि के अनुसार इस शत्रुञ्जय - माहात्म्य के मूल प्रवक्ता भगवान् महावीर ने स्वयं शत्रुञ्जय तीर्थ में पदार्पण कर इन्द्र एवं देवताओं के समक्ष इसका माहात्म्य वर्णित किया था। कवि ने धनेश्वरसूरि के काल का भी सूचना किया है। उनके अनुसार वे
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