________________
१७६
महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अन्त में गणधर गौतमस्वामी ने महाराजा श्रेणिक से कहा कि इस सीता-चरित्र को सुनकर शीलव्रत धारण करना चाहिये और झूठा कलङ्क भी न लगाने का गुण ग्रहण करना चाहिए। इसी के साथ श्री सीतारामप्रबन्धे सीतादिव्यकरण, सीता-दीक्षा, लक्ष्मणमरण, रामनिर्वाण, लक्ष्मणरावण-सीतागामिभवपृच्छा वर्णनोनाम नवमः खण्डः' का समापन हो जाता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ एक चरित्रात्मक प्रबन्ध-काव्य है क्योंकि 'सीताराम-चौपाई' में छन्द की विविधता, रस का पूर्ण परिपाक, वृत्त की ऐतिहासिकता, जीवन का सर्वाङ्गीण चित्रण और अनेक सर्गों में आबद्ध होने से इसे 'प्रबन्ध-काव्य' कह सकते हैं। कवि ने भी स्वयं इस बात का प्रत्येक खण्ड के अन्त में निर्देश किया है -'इति श्री सीताराम प्रबन्धे।'
इस ग्रन्थ के विशेष महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए प्रा. फूलसिंह 'हिमांशु' ने लिखा है कि कवि की प्रतिभा ने जानी-पहचानी जैन रामायण को भी एक नये आकर्षक रूप में प्रस्तुत किया है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी महान् गीतकार समयसुन्दर ने अनेक विषयों पर लिखा है। रास-साहित्य के लगभग दस हजार ग्रन्थों में से यह आलोच्य ग्रन्थ अपने विराट रूप, मार्मिक प्रसंग एवं सहज सरसता के कारण अपना विशेष महत्त्व रखता है। सरस सरल भाषा में रामकथा को गेय रूप में प्रस्तुत करने का कवि का यह प्रयास अनेक दृष्टिकोणों से स्तुत्य है।'
मोहनलाल द. देसाई ने तो इस कृति को बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना है। उन्होंने यहाँ तक लिखा है कि यह कृति तो कवि की अद्भुत हुई है और वह गुर्जर कविशिरोमणि प्रेमानन्द से अनेक बार टक्कर मारकर बहुत-सी बातों में उनसे ऊपर चढ़ जाती है।
इस ग्रन्थ की हस्तलिखित पांडुलिपि अनूप संग्रह/संस्कृत लायब्रेरी, बीकानेर; देवचन्द लालाभाई पुस्तकोद्धार-फण्ड, सूरत; विजयधर्मसूरि-ज्ञानभण्डार, आगरा; अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में उपलब्ध है। अगरचन्द नाहटा एवं भंवरलाल नाहटा ने इसे सम्पादित कर सादल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बीकानेर द्वारा प्रकाशित किया है। ४.१.८ वल्कलचीरी-चौपाई
यह कृति परिमाण में छोटी है, किन्तु काव्य-तत्त्वों से परिपूर्ण है। इस कृति की हस्तलिखित प्रति अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर; प्र. श्री कान्तिविजयज्ञान-भंडार, बड़ौदा एवं ज्ञानभण्डार-लींबड़ी में उपलब्ध है। यह कृति 'समयसुन्दर-रास-पंचक' ग्रन्थ में संकलित है। इस कृति का सम्पादन श्री भंवरलाल नाहटा ने किया है और प्रकाशन सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बीकानेर से हुआ है। १. द्रष्टव्य – मरुभारती, वर्ष ७, अंक १ २. जैन साहित्य संशोधक (खण्ड २, अङ्क ३, पृष्ठ २८)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org