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________________ १७२ महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व चन्द्रगति विरक्त हो गया और दीक्षा ले ली। अनेक निमित्तों से यहाँ पर दशरथ- परिवार, जनक - परिवार आदि से सच्चा सम्बन्ध और मिलन हुआ । 4 राजा दशरथ पूर्व से ही वैराग्यवासित थे । एक दिन वे रात्रि में जगकर चिन्तन कर रहे थे कि चन्द्रगति विद्याधर धन्य है, मुझे भी अनेक जन्म-मरण करते हुए यह मानव जन्म मिला है; अतः राम को राज्य सौंपकर मुझे संयम ग्रहण करना चाहिए। सभी की अनुमति से उन्होंने राम के राज्य- अभिषेक की कामना की। उसी समय कैकेयी द्वारा धरोहर रखा हुआ वर उसने मांगा कि 'राम को चौदह वर्ष पर्यन्त वनवास और भरत को राज्य देने की कृपा करें।' दशरथ चिन्तातुर होकर राम को कैकेयी के वर की पूर्व बात बतलाते हैं । (कवि ने इस करुणात्मक घटना का अति सजीव और सटीक वर्णन किया है ।) अन्ततः राम और लक्ष्मण ने वनवास के लिये प्रस्थान कर दिया; साथ में सीता भी छायावत् चल पड़ी। यह वियोग सभी के लिए असह्य था । दशरथ और उनके अनेक सामन्तों ने विरक्त होकर आचार्य भूतशरण से प्रव्रज्या ग्रहण कर ली । कैकेयी अपने वर का फल हानिकारक समझकर भरत के संग राम को वापस लेने गई। लेकिन राम ने कह दिया कि हम क्षत्रिय हैं, वचन नहीं पलटते हैं । अतः सब लोग लौट जाते हैं। इसी के साथ श्रीसीतारामप्रबन्धे राम-सीता वनवास वर्णनो नाम द्वितीयः खण्डः ' सम्पूर्ण हो जाता है । राम आदि अवन्ति प्रदेश के दशपुर नगर में पहुँचे। वहाँ के राजा वज्रजंघ की धर्मनिष्ठता के कारण उन्होंने उसकी सहायता की और उस पर चढ़ाई करने वाले अन्यायी राजा सीहोदन को पराजित किया । इसी तरह उन्होंने म्लेच्छाधिप को भी मुक्त किया। यहीं पर 'सीतारामप्रबन्धे वनवासे परोपकार-वर्णनो नाम तृतीयः खण्डः ' की इति होती है । चतुर्थ खण्ड में कवि ने लिखा है कि राम-सीता-लक्ष्मण ने अरुण गाँव के एक यक्ष - मन्दिर में वर्षावास बिताया। उनके प्रभाव से यक्ष ने वहाँ एक दिव्य नगरी का निर्माण किया और जाते समय उन्हें कुछ भेंट भी दी । विजयापुरी पहुँचने पर यहाँ के राजा महीधर की पुत्री के साथ लक्ष्मण का विवाह हुआ । नन्द्यावर्त नगर के सम्राट् अतिवीर्य द्वारा राजा भरत पर आक्रमण करने पर लक्ष्मणादि ने उसे हराकर भरत की अधीनता स्वीकार कराई । विविध अंचलों में भ्रमण करते हुए वे खेमजलि नगर पहुँचे। वहाँ राजा शत्रुदमन की पुत्री जितपद्मा के लिये लक्ष्मण का शक्ति सन्तुलन हुआ। जब वे लोग वंशस्थल नगर पहुँचे, तो वहाँ एक मुनिराज पर दैविक उपसर्ग हो रहे थे । उन्होंने उपसर्गों को शान्त किया और मुनिराज को अचल ध्यान में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। रामादि ने मुनिराज की सेवा - भक्ति की और इनके द्वारा पूछे जाने पर मुनिराज ने उपसर्गों का कारण बताया। वंशस्थलपुरनरेश सूरप्रभ ने राम के कहने से वहाँ एक जिनालय बनाया। इसी के साथ श्री सीतारामप्रबन्धे केवलिमहिमावर्णनोनाम चतुर्थ खण्ड समाप्त होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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