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समयसुन्दर की रचनाएँ
१५९ ने उसे रानी पर दुराचारी होने का आरोप लगाया। चित्रकार ने इस चित्र-कला का रहस्य प्रकट किया और कहा कि मैंने यह कला एक यक्ष की कृपा से सीखी थी, किन्तु राजा ने क्रोधावेश में उसका दाहिना हाथ कटवा दिया। चित्रकार ने पुनः यक्ष-मन्दिर में यक्ष से बायें हाथ से भी पूर्ववत् चित्र बनाने का वरदान मांगा। निरपराध दण्ड का प्रतिशोध लेने के लिए उसने उज्जयिनी के राजा चण्डप्रद्योतन को मृगावती का चित्र भेंट किया। राजा ने मृगावती को प्राप्त करने के लिए दूत को भेजा और कौशाम्बी पर चढ़ाई कर दी।
मृगावती अपने रूप को धिक्कारने लगी, तो राजा अपने अज्ञानवश हुए क्रोध को; जिसके कारण युद्ध की स्थिति आ गई। राजा पर अतिसार-रोग का प्रकोप हो गया और उसने समाधि-मरण को प्राप्त किया। इसी के साथ दूसरे खण्ड का समापन हो जाता है।
तृतीय खण्ड के आरम्भ में कवि ने श्री जिनदत्तसूरि की स्तुति की है। तत्पश्चात् कथा को पुनः आगे बढ़ाया है। मृगावती ने चण्डप्रद्योतन से कहा कि मेरे पति का अभी देहान्त हो गया है; अत: एक वर्ष के बाद मैं आपकी ज्ञाना मानने को प्रस्तुत हूँ। तब तक आप मेरे पुत्र के लिए सुदृढ़ किला आदि बनवा दीजिये, ताकि उसका भविष्य सुरक्षित रहे। रानी की चाल सफल हो गई। एक वर्ष बाद मृगावती ने अपने को समर्थ जानकर उसे यह स्पष्ट कह दिया कि नागमणि की भाँति सती का शील कोई खंडित नहीं कर सकता।
उसी समय भगवान् महावीर कौशाम्बी में पधारे। उनके प्रवचन को सुनने के लिए चण्डप्रद्योतन ससैन्य और मृगावती समस्त नागरिकों के साथ गयी। भगवान् के प्रवचन से प्रतिबुद्ध हो, मृगावती वैराग्य जागृत होने से दीक्षा लेकर साध्वी बन गयी। भगवान् ने इसे प्रवर्तिनी चन्दनबाला की शिष्या बनाया।
एक दिन सूर्यास्त हो जाने पर भी भगवान की सभा में अधिक समय रुक जाने के कारण गुरुवर्या चन्दनबाला द्वारा उपालम्भ मिलने पर मृगावती ने अतिपश्चाताप और आलोचना की, जिसके कारण उसे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। गुरु की अपेक्षा शिष्या को शीघ्र परम ज्ञान की प्राप्ति का समाचार सुनकर उसने मृगावती को नमस्कार किया और स्वयं भी आत्म-निन्दा करने लगी; फलस्वरूप गुरुणी चन्दनबाला को भी केवलज्ञान प्राप्त हो गया। सामान्यतया जैसे जैन-कथाओं में कथानायक या कथानायिका के निर्वाण-प्राप्ति के प्रसंग से कथा का समापन होता है, वैसे ही यहाँ भी मृगावती के निर्वाण के प्रसंग के साथ कथा का समापन हुआ है।
उपर्युक्त चौपाई की हस्तलिखित पाण्डुलिपि अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में है। यह कृति नाहटा-बन्धुओं एवं डा० रमणलाल ची० शाह के सम्पादकत्व में गुर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, अहमदाबाद से प्रकाशित हुई है। ४.१.४ सिंहलसुत/प्रियमेलकतीर्थ-चौपाई
मनुष्य आदिकाल से ही कथा-साहित्य के प्रति आकर्षित रहा है। इसीलिए
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