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समयसुन्दर की रचनाएँ
१५७ राज्य आदि त्यागकर इसका संचय क्यों करते हो? यह सुनते ही करकण्ड के उत्तर देने से पूर्व ही नमि ने कहा- मुनि! आपके राज्य में आपके अनेक आज्ञापालक थे। आप दूसरों को दण्ड देते और पराभव करते थे। इस कार्य को छोड़ आप मुनि बने हैं, तो आप दूसरों के दोष क्यों देख रहे हैं? यह सुन नग्गति बोला- जो मोक्षार्थी हैं, वे दूसरों की गर्दा कैसे करेंगे? तब करकण्डु ने कहा – नमि, द्विमुख और नग्गति ने जो कुछ कहा है, वह अहित का निवारण करने के लिए है। अत: वह दोष नहीं है। चारों निरभिमानी थे। चारों ने यह बात मानी।
अन्तिम आठवीं ढाल में कवि चारों प्रत्येक-बुद्धों के गुणों की प्रशंसा करता है। जो बात 'उत्तराध्ययन नियुक्ति में कही गई है, वही बात कवि ने भी कही है कि इन चारों प्रत्येक-बुद्धों के जीव एक साथ पुष्पोत्तर देव-विमान से च्युत हुए थे। चारों ने एक साथ प्रव्रज्या ली। एक ही समय में प्रत्येकबुद्ध हुए, एक ही समय में केवली बने और एक ही समय में सिद्ध हुए।
चतुर्थ खण्ड में ९ ढाल हैं। इसकी रचना आगरा में ज्येष्ठ-पूर्णिमा, वि० सं० १६६५ में तीर्थङ्कर विमलनाथ के प्रसाद से और कुशलसूरीन्द्र के सानिध्य में सम्पूर्ण हुई। इस ग्रन्थ का प्रणयन कवि ने नागड़ गोत्रीय संघनायक सूरशाह के आग्रह से किया था।
चार प्रत्येक-बुद्ध-चौपाई का आनन्दकाव्य-महोदधि से सातवें भाग में सम्पादन किया गया है। इस ग्रन्थ का सम्पादन मुनि सम्पतविजय ने किया है और प्रकाशन सेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार-फण्ड, मुम्बई ने। ४.१.३ मृगावती-चरित्र-चौपाई।
__कविवर समयसुन्दर के रास-चौपाई-साहित्य में 'मृगावतीचरित्र-चौपाई' भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इस कृति की रचना कवि ने वि० सं० १६६८ में सिन्ध-प्रान्त के अन्तर्गत मुलताननगर में जैसलमेरी श्रावक करमचन्द रीहड़ के आग्रह से की थी। कवि ने इस चौपाई का अपर नाम 'मोहनवेल' दिया है। कवि ने लिखा है -
सोलसई अठसटा वरष हुई चउपई घणे हरषे बे। मृगावती चरित्र कह्या त्रिहुं खंडे घणे आणन्द घमन्डे बे।
जाण श्रावक ते जैसलमेरा, मरम लहई ध्रम केरा बे। करमचन्द रीहड़ जाणीता, साहे सदा वदीता बे॥
तसु आग्रह करि जो ग्रन्थ कीधा, नाम मोहणवेल दीधा बे॥ १. उत्तराध्ययन-नियुक्ति, गाथा २७० २. मृगावती-चरित्र-चौपाई (३.१२.२६-२७) ३. वही, (३.१२.९-११)
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