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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व राजा ने इसका अर्थ पूछा । वह बोली, 'भीड़ होने पर भी घोड़ा दौड़ाने की मूर्खता, गर्म भोजन लाने के बाद शौचालय जाने की मूर्खता, वृद्ध पिता को अन्य युवा चित्रकारों की बराबरी का भित्तिचित्र बनाने के लिए देने की चित्रशाला के अधिकारी की मूर्खता, मकान में चित्रित मोर को पकड़ने की राजा की मूर्खता - ये चार पाये हुए।' राजा, कनकमञ्जरी के वाक्चातुर्य पर मुग्ध हो गया। राजा ने उससे शादी कर ली। वह प्रतिदिन आश्चर्य में डालने वाली अधूरी कहानी सुनाती और अगले दिन उसे पूरा करती। राजा उसकी कहानी सुनने प्रतिदिन उसी के महल में आता। (कवि ने इन बौद्धिक कथाओं में बहुत ही लालित्य भरा है।) ऐसे छः मास व्यतीत हो गये। अन्य रानियों ने ईर्ष्यावश राजा को भड़का दिया, लेकिन राजा ने यथार्थ स्थिति जानी और वह उससे इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने उसे अपनी पटरानी बना दिया। वह श्राविका-धर्म का पालन करती हुई मरकर देवी हुई। वहाँ से च्युत होकर तोरणपुर-नरेश दृढ़शक्ति की कनकमाला नामक लड़की हुई, जिसका तरुणावस्था में विद्याधर वासव ने अपहरण कर लिया और पर्वत पर महल विकुर्वित कर उससे विवाह करना चाहा। कनकमाला के भाई कनकतेज से उसका युद्ध हुआ, जिसमें दोनों मर गये। दृढ़शक्ति विद्याधर पुत्र-पुत्री का सन्धान करते हुए जब पहुँचा, तो एक वाण-व्यन्तर देव ने सबको मृतक दिखा दिया। राजा विरक्त हो प्रव्रजित हो गया। उसी देव ने कनकमाला को बताया था कि जो विपरीत शिक्षित अश्व पर आरूढ़ होकर यहाँ आयेगा, वह तेरा पति होगा। मैं वही कनकमाला हूँ। देव भी इसी महल में रहता है। देववाणी-अनुसार आपने मुझसे विवाह किया।
राजा ने उत्सव-सहित नगर-प्रवेश किया। वह हर पाँचवें दिन उस नग-पर्वत पर जाता, जिससे उसका नाम नग-गई-नग्गति हो गया। राजा ने देव के कहने से वहाँ जिनालयादि भी बनाये।
एक दिन राजा परिकर के साथ पर्यटन हेतु निकला। उसने एक आम्रवृक्ष से एक आम तोड़ लिया। राजा की देखा-देखी सभी ने आम और पत्ते तक तोड़ डाले। वापस लौटते समय राजा ने वहाँ ठूठ मात्र देखा। राजा प्रबुद्ध हो गया। उसने सोचा, जब तक ऋद्धि-समृद्धि है, तभी तक शोभा है और ऋद्धि चंचल है। इस प्रकार से चिन्तन करते हुए वह तत्काल प्रत्येक-बुद्ध मुनि हो गया।
ये चारों प्रत्येक-बुद्ध विचरण करते हए क्षिति-प्रतिष्ठित नगर में आए। वहाँ चार द्वारोंवाला एक देवकुल था। करकण्डु पूर्व दिशा के द्वार से प्रविष्ट हुआ, द्विमुख दक्षिण द्वार से, नमि पश्चिम द्वार से एवं नग्गति उत्तर द्वार से। यक्षदेव ने यह सोचकर कि मैं साधुओं को पीठ देकर कैसे बैठू, अपने को चतुर्मुख कर लिया।
करकण्डु खुजली से पीड़ित था। उसने एक कण्डूयन से कान में खुजली करके उसे अपने पास रखकर छुपा लिया। यह देख द्विमुख ने कहा - मुने! अपना अन्त:पुर
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