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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व देखने के लिए अपने पण्डितों से शास्त्रार्थ करने को कहा । मानतुङ्गाचार्य ने उनके साथ जगत-कर्तृत्व सम्बन्धी वाद चलाकर विजय प्राप्त की। राजा ने उनसे मयूर आदि जैसी दिव्य विद्या दिखाने को कहा।
राजा ने आचार्यश्री को तालेयुक्त ४८ बेड़ियाँ पहनाईं और सात तालेयुक्त कमरे में उन्हें बन्द कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने प्रस्तुत स्तोत्र की रचना करनी प्रारम्भ की। एकएक पद्य की रचना के साथ एक-एक बेड़ी टूटती गई । अन्त में द्वार के ताले भी स्वतः खुल गए। प्रत्यक्ष चमत्कार देखकर राजा ने उनका अत्यधिक अभिनन्दन किया।
आज यह स्तोत्र जैनियों के नित्य कर्म की एक कड़ी है। प्रस्तुत कृति इस स्तोत्र की संक्षिप्त किन्तु स्पष्टार्थ वृत्ति है । इसमें वृत्तिकार ने पदार्थ का समास - विग्रह करते हुए उसे सरल भाषा में स्पष्ट किया है, जिससे संस्कृत का सामान्य ज्ञान रखने वाले पाठकों के लिये भी यह स्तोत्र सुबोध हो गया है। कहीं-कहीं वृत्तिकार ने कुछ विलक्षणता भी प्रकट की है। उदाहरणार्थ प्रथम पद्य की वृत्ति में पदार्थ में निहित चार अतिशयों १. पूजातिशय, २. अपाय - अपगमातिशय, ३. ज्ञानातिशय और ४. वचनातिशय- को वृत्तिकार ने स्पष्ट कर दिया है, जिससे पद्य में अतिशयों का नाम-निर्देश न होने पर भी अध्येता को स्तोत्रकार द्वारा संकेतित अतिशयों का बोध हो जाता है ।
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प्रस्तुत वृत्ति में यत्र-तत्र शब्दों के अनेक अर्थ भी दिये गये हैं । जैसे - ग्यारहवें पद्य में आए ‘शान्त-रागरुचिभिः' शब्द के दो अर्थ वृत्तिकार ने प्रस्तुत किये हैं १. जिनकी राग में कोई रुचि न रह गई हो या जिनकी राग में रुचि समाप्त हो गई हो, २. 'शान्त' नामक नवम् रस की भावना में जिनकी रुचि हो
इस तरह स्पष्ट है कि यह वृत्ति केवल स्तोत्र के शब्दार्थ को समझने के लिए ही नहीं, अपितु इसमें निहित गूढ़ आशयों को स्पष्ट करने के लिए भी अत्यन्त उपयोगी है। 'भक्तामर - सुबोधिका - वृत्ति' की हस्तलिखित प्रतिलिपि श्री अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर एवं श्री जिनहरि - विहार, पालीताणा (गुजरात) से प्राप्त हुई है। बीकानेर वाली प्रति सुवाच्य नहीं है, जबकि पालीताणा की प्रति आद्यन्त सुपाठ्य एवं सुरक्षित है - वृत्ति
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२. ९ नवतत्त्व
यह शब्दार्थ-वृत्ति रूप कृति है । वृत्ति में प्राप्त उल्लेखों से विदित होता है कि मूल ग्रन्थ आगमों के आधार पर रचित है। इसमें मुख्यत: तात्त्विक चर्चा है । तत्त्व- सम्बद्ध सामग्री, जो आगमों में इधर-उधर बिखरी हुई है, का इस कृति में सुसंकलित और सुव्यवस्थित रूप उपलब्ध है । आगमों में आने वाले गहन तात्त्विक विषयों में प्रवेश करने के लिये यह कृति प्रवेशद्वार के समान है।
समयसुन्दर ने अपनी वृत्ति में मूल कृति के शब्दों का ही अर्थ स्पष्ट किया है। समयसुन्दर के अतिरिक्त अन्य विद्वानों ने भी नवतत्त्व - प्रकरण पर व्याख्या ग्रन्थ लिखे हैं,
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