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समयसुन्दर की रचनाएँ
'नवीन शिष्यस्य पूर्वं अकृत व्याख्यानस्य हितकृते।
संवत् १६८७ फा० शु० ८ दिने श्रीपत्तने । २.८ भक्तामर-सुबोधिका-वृत्ति
'भक्तामर-स्तोत्र' बहुत ही प्रभावक स्तोत्र माना जाता है। यह स्तोत्र वस्तुतः मानतुंगाचार्य कृत प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभ की स्तुति है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर - दोनों आम्नाय के अनुयायियों द्वारा इस स्तोत्र का नित्य पाठ करना, इसके चमत्कारिक माहात्म्य का प्रमाण है।
प्रस्तुत स्तोत्र की रचना के समय मूल में ४८ पद्य थे, परन्तु भक्तों के द्वारा जब इसका दुरुपयोग होने लग गया, तो उनमें से उन ४ पद्यों को प्रचलन से हटा दिया गया, जिसके कारण देवताओं को प्रकट होना पड़ता था। तदर्थ महोपाध्याय समयसुन्दर ने ४४ पद्यों की ही सुबोधगम्य वृत्ति लिखी है।
भक्तामर स्तोत्र पर समयसुन्दर के अलावा अनेक विद्वानों ने वृत्ति-टीका आदि लिखी है, जिनमें गुणसुन्दर (सं० १४२६), कनककुशल (सं० १६५२), अमरप्रभ, शांतिसूरि, गणिमेघविजय, ब्रह्मरायमल्ल (सं० १६६७), रत्नचन्द्र, मेरुसुन्दर, गणिइन्द्ररत्न, पद्मविजय, देवसुन्दर, उपाध्याय शांतिचन्द्र, चन्द्रकीर्त्तिसूरि, कीर्तिगणि, गुणाकरसूरि, गणिहरितिलक, क्षेमदेव, शुभवर्धन, लक्ष्मीकीर्ति आदि द्वारा रचित वृत्तियाँ प्राप्त होती हैं।
___ 'भक्तामर-सुबोधिका-वृत्ति' की रचना वि० सं० १६८७ में पत्तन-नगर में हुई थी। वृत्तिकार ने लिखा है -
पत्तने नगरे सप्तवसु श्रृंगारसंवति । __ वृत्ति के प्रारम्भ में भक्तामरस्तोत्र के प्रणयन का प्रयोजन बताया गया है। वृत्तिकार लिखते हैं कि उज्जयनी नगरी में वृद्ध भोजराज की सभा में चौदह विद्याप्रवीण, षट्शास्त्र-ज्ञाता, देव-सान्निध्यसम्पन्न एवं गर्विष्ठ अनेक पण्डित रहते थे।
एक दिन मयूर नामक पण्डित ने अपनी पुत्री तथा पण्डित दामाद बाण को परस्पर झगड़ते हुए देखकर उनकी हँसी उड़ाई। पुत्री ने क्रोधवश मयूर को कुष्ठी होने का श्राप दे दिया। मयूर ने सौ श्लोकों में सूर्य की उपासना कर उनसे अपना रोग दूर करवा लिया।अत: मयूर विश्रुत हुआ। बाण ने ईर्ष्यावश अपने हाथ-पैर काटकर चण्डी देवी को प्रसन्न किया। चण्डी ने उसके नये हाथ-पैर कर दिये। इससे उसकी भी प्रसिद्धि हुई।
एक दिन वृद्ध भोजराज ने श्रावकों से पूछा कि क्या आपके जैनियों में कोई मयूर/बाण जैसे विद्यासम्पन्न हैं। उन्होंने कहा - आचार्य मानतुङ्गसूरि आपके वचनानुकूल हैं। राजा के निमन्त्रण पर मानतुङ्गसूरि राज्य-सभा में गए। राजा ने इनकी वक्तृत्व-विद्या १. उद्धृत - समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, महोपाध्याय समयसुन्दर, पृष्ठ ५४ २. द्रष्टव्य - जिनरत्नकोश, पृष्ठ २८८-८९
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