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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व महोत्सवों का वर्णन उपलब्ध होता है। इस संदर्भ में लेखक ने 'वसुदेव-हिण्डी' और 'शान्तिनाथचरित्र' ग्रन्थ का उल्लेख किया है। (७६) प्रस्तुत संदर्भ में दिगम्बर-सम्मत इस मान्यता का निराकरण किया गया है कि स्त्री को मुक्ति नहीं मिल सकती है। (७७) इस अधिकार में 'कुत्रिकापण' शब्द का अर्थ बताया गया है- 'क' का अर्थ है आधार-स्थान और 'त्रिक' का अर्थ है तीन अर्थात् स्वर्गलोक, मर्त्यलोक, और पाताललोक। जहाँ इन तीनों लोक की अर्थात् सभी प्रकार की वस्तुओं का विनिमय होता है, उसे 'कुत्रिकापण' (कु+त्रिक+आपण) सम्बोधित किया जाता है। (७८) इस प्रकरण में यह बताया गया है कि मरुदेवी निगोद से निकलकर, मनुष्यलोक में जन्म प्राप्त कर, उसी भव में सिद्ध हुई- इसका उल्लेख 'बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति' में उपलब्ध होता है। (७९) इसमें हरिभिद्र कृत 'आवश्यकबृहद्वृत्ति' के अनुसार यह बताया गया है कि ज्ञान, दर्शन और चरित्र के अभाव में जो मात्र वेश से साधु हैं, उन्हें व्यवहार से साधु ही कहा जायेगा। (८०) इस प्रकरण में जीव के अभव्य, सिद्ध, भव्य एवं जातिभव्य - इन चार भेदों का उल्लेख करते हुए तरुणप्रभसूरि-रचित बालावबोध के आधार पर जातिभव्य जीव के लक्षण बताये हैं। (८१) इसमें स्पष्ट किया गया है कि आगमानुसार भगवान् महावीर की तपस्या एवं पारणों का काल कुल मिलाकर १२ वर्ष और १३ पक्ष माना जाता है, जबकि महावीर ने मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की दशमी को दीक्षा ग्रहण की थी और उन्हें वैशाख शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन केवल-ज्ञान उत्पन्न हुआ। इस आधार पर उनकी तपस्या और केवल-ज्ञान का काल १२ वर्ष और ११ पक्ष ही होता है, जबकि उपर्युक्त उल्लेख के अनुसार १२ वर्ष और १३ पक्ष होना चाहिये। इस प्रकार दो पक्ष न्यूनता दिखाई देती है। इसके साथ ही साथ चन्द्रगणना के अनुसार प्रतिवर्ष ६ दिन कम होते हैं। अतः सम्पूर्ण साढ़े बारह वर्षों में पाँच पक्ष और कम हो जाते हैं। इस प्रकार ३ मास और १ पक्ष कम हो जाता है, किन्तु सूर्य वर्ष के हिसाब से पाँच वर्षों में दो मास की वृद्धि होती है। इस प्रकार साढ़े बारह वर्षों में लगभग ५ मास की वृद्धि होती है। अत: डेढ़ मास या तीन पक्ष अवशिष्ट रहते हैं। संभवत: यह काल उनका बेला, तेला आदि अन्य तपस्याओं का रहा होगा, जिसे गणना में गृहीत नहीं किया होगा। अतएव इससे आगमिक कथन में कोई बाधा नहीं आती है। (८२) इसमें मलयगिरि विरचित 'पिण्डनियुक्ति' के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि पृथ्वी आदि पंचकाय एक निश्चित सीमा के बाहर ले जाने के बाद अचित्त हो जाते हैं। लेखक ने इसका सविस्तार विवेचन किया है।
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