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समयसुन्दर की रचनाएँ
१०३ पल्योपम पूर्वकोटि पृथकत्व अधिक, (३) १४ पल्योपम पूर्वकोटि पृथकत्व, (४) १०० पल्योपम पूर्वकोटि पृथकत्व अधिक, (५) १ पल्योपम पूर्वकोटि पृथकत्व अधिक। इसके अतिरिक्त पुरुषवेद के काल का भी उल्लेख किया गया है - जघन्य १ समय और उत्कृष्टकाल १० हजार वर्ष है। इसके अतिरिक्त लेखक ने नपुंसकवेद के काल का सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक दृष्टि से भी विचार किया है। (६८) इस प्रकरण में प्रवचनसारोद्धारवृत्ति' के आधार पर बताया गया है कि योनि और कुल में स्पष्ट भेद है। योनि उत्पत्ति स्थान को कहते हैं, जबकि एक योनि के जीवों के वर्ण आदि के आधार पर अनेक कुल हो सकते हैं। (६९) प्रस्तुत अधिकार में यह बताया गया है कि पूर्वदिशा की ओर मुख करके खड़े होने पर मेरु सदैव उत्तर की ओर दिखाई देता है। (७०) इसमें कोटिशिला के संबंध में विवरण प्रस्तुत किया गया है। इस शिला पर करोड़ों मुनियों के सिद्ध होने से इसे कोटिशिला कहा जाता है। नव वासुदेव इस शिला को अपनी शक्ति के अनुसार जहाँ तक ऊँचा उठाते हैं, उसका वर्णन भी प्रस्तुत अधिकार में किया गया है। (७१) इस संदर्भ में सिद्धों के देहमान की चर्चा की गई है। आगम में सिद्धों की जघन्य अवगहना सात रत्नी (अरनि-कनिष्ठा अंगुली तक का माप) और अधिकतम ५०० धनुष कही गई है। जबकि कुर्मापुत्र की शरीर-अवगहना मात्र दो हस्त थी एवं मरुदेवी की ५०० से अधिक थी और ये दोनों भी सिद्ध हुए थे। अतः स्वाभाविक रूप से सिद्धि अवस्था में भी इनकी अवगहना यही होगी और इस आधार पर आगम में प्रतिपादित सिद्धों की अवगहना से अन्तर होगा। इस समस्या का समाधान करते हुए ग्रन्थकार ने बताया है कि आगम में सिद्धों की जो जघन्य और उत्कृष्ट अवगहना बताई गई है, वह तीर्थङ्करों की अपेक्षा से है। अतः इससे आगम की मान्यता में कोई विरोध नहीं आता है। (७२) इस प्रकरण में बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम में परस्पर भेद बतलाया गया है। शारीरिक शक्ति को बल, शरीर में निहित चेतन तत्त्व की शक्ति को वीर्य, मनुष्य में किसी कठिन कार्य करने के अभिमान को पुरुषकार और उस कठिन कार्य के सम्पादन को पराक्रम कहते हैं। (७३) इसमें 'सूर्यप्रज्ञप्ति' का प्रमाण देते हुए यह बताया गया है कि लवण-समुद्र में स्थित १६ हजार योजन प्रमाण शिखा होने पर भी सूर्य, चन्द्र की गतियों में कोई व्याघात उत्पन्न नहीं होता। (७४) इसमें 'बृहत्कल्प' के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि चौदह पूर्वधारी साधु मिथ्यात्वी नहीं हो सकता। (७५) प्रस्तुत अधिकार में यह बताया गया है कि प्राचीन ग्रन्थों में तीन अष्टाह्निक
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