________________
समयसुन्दर की रचनाएँ प्रतिपादित किया है कि यह वन्दन भोजन के पश्चात् किया जाता है। तिरानवेवाँ अधिकार - इसमें चैत्र और आश्विन माह के द्वितीय पक्ष की द्वितीया को 'अस्वाध्याय' के निवारणार्थ जो क्रिया की जाती है, उसकी विधि प्रदत्त है। चौरानवेवाँ अधिकार - प्रस्तुत अधिकार में द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी एवं चतुर्दशी रूप पंच पर्व-तिथियों में किये जाने वाले तपादि का सप्रमाण विवरण दिया गया
पिचानवेवाँ अधिकार- इसमें प्रात:कालीन प्रतिक्रमण को कहाँ समाप्त करना चाहिये, इस पर विचार करते हुए बताया है कि जब 'आचार्य-मिश्र' आदि तीन 'खमासमणा' देते हैं, तब रात्रिक प्रतिक्रमण सम्पूर्ण हो जाता है। छियानवेवाँ अधिकार - प्रस्तुत प्रकरण में साधु को उत्सर्ग रूप में एक वस्त्र, अपवाद रूप में तीन वस्त्र और अत्यन्त अपवाद में सात वस्त्र रखना आगम-सम्मत बताया है और सामायिक में श्रावक को उत्सर्ग रूप में एक वस्त्र एवं अपवाद रूप में तीन वस्त्र और श्राविका को उत्सर्ग रूप में एक वस्त्र तथा अपवाद रूप में छ: वस्त्र रखना आगम-आज्ञा मानी है। सत्तानवेवाँ अधिकार- इस अधिकार में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि स्थापना किसकी होती है, गुरु की या अर्हत् की? यदि वह स्थापना गुरु की मानी जाये, तो उसके सम्मुख 'शक्रस्तव' का पाठ करना उचित नहीं होगा और यदि वह अर्हत् की स्थापना मानी जाये, तो फिर यह कहकर कि 'गुरु विहरम्मि अठवणा' उसका स्थापना करना उचित नहीं होगा। लेखक ने इस सन्दर्भ में विस्तृत विचार करते हुए यह बताया है कि 'स्थापना' पंच परमेष्ठी की होती है। अत: उसमें सभी का समावेश हो जाता है। अठ्ठानवेवाँ अधिकार - इस प्रकरण में 'प्रतिक्रमण' में श्रुतदेवता की स्तुति करना सिद्धान्त है, या परम्परा- यह प्रश्न उठाया गया है। ग्रन्थकार ने इसे परम्परा ही माना है। निन्यानवेवाँ अधिकार-खरतरगच्छीय साधु-साध्वी मिट्टी के घट में जल-ग्रहण करते हैं, उसमें जीवोत्पत्ति होती है या नहीं-ग्रन्थकर्ता ने इस प्रश्न पर चर्चा करते हुए प्रस्तुत अधिकार में यह बताया है कि मिट्टी के घट में जल लेने से जीवोत्पत्ति नहीं होती है। सौवाँ अधिकार- इसमें संघ पर आए उपद्रव आदि के निवारण के लिए 'शान्ति' की विधि दी गई है। १.८ विशेष-शतक
इस ग्रन्थ के विशेषशतक' इस नाम से आपाततः ऐसा प्रतीत होता है कि मूल ग्रन्थ में १०० पद्य हैं, किन्तु ग्रन्थ के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि इसमें ग्रन्थकार ने केवल शिष्य द्वारा उठाये गये १०० प्रश्नों के उत्तर दिये हैं। इसमें अन्य ग्रन्थों के उद्धरणों तथा अपेक्षित विवरणों द्वारा उन प्रश्रों का समाधान करने का प्रयास किया गया है। यत्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org