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समयसुन्दर की रचनाएँ
८७ है, क्योंकि उसमें स्पर्श होता है, धूप आदि अन्य पूजाओं का निषेध उसके लिए नहीं है। यह निषेध भी जिनदत्तसूरि ने मूल प्रतिमा की सातिशयता की रक्षा की दृष्टि से ही किया है। पन्द्रहवाँ अधिकार- प्रस्तुत प्रकरण में इस बात की पुष्टि की गई है कि वर्तमानकाल में शारीरिक सामर्थ्य, साहस आदि की अल्पता के कारण श्रावकों को ग्यारह प्रतिमाओं के धारण करने का निषेध है, क्योंकि ग्यारह प्रतिमाधारक पर उपसर्ग एवं परीषह आने की पूर्ण सम्भावना होती है। सोलहवाँ अधिकार- इसमें एक साथ अधिक उपवास के प्रत्याख्यान का निषेध किया गया है तथा इस तथ्य को आगम एवं पूर्वाचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों के प्रमाण से सिद्ध किया गया है कि एक से ज्यादा उपवास करने के स्थान पर प्रतिदिन एक-एक उपवास का प्रत्याख्यान करवाना चाहिये। सतरहवाँ अधिकार- प्रस्तुत अधिकार में करेमि भन्ते' सत्र अर्थात सामायिक-प्रतिज्ञा सूत्र को तीन बार बोलना शास्त्र-सम्मत प्रमाणित किया गया है। अठारहवाँ अधिकार – इस प्रकरण में श्रावक के लिए रजोहरण या चरवला रखना आवश्यक नहीं है- इस बात की पुष्टि की गई है। इसी प्रकार यह भी स्पष्ट किया गया है कि श्रावक को वंदन, कायोत्सर्ग आदि करते समय उसे केवल प्रमार्जन आदि के लिए अपने चरणों के पास रजोहरण या चरवला रखना चाहिये। उन्नीसवाँ अधिकार - विवेच्य अधिकार में पौषध की रात्रि के अन्तिम मुहूर्त में पुनः सामायिक ग्रहण करना आवश्यक बताया गया है और इसके लिए शास्त्रीय प्रमाण एवं तर्क प्रस्तुत किए हैं। बीसवाँ अधिकार - तपागच्छादि में प्रतिलेखना के समय 'बहुपडिपुना पोरिसी' सूत्र उच्चरित होता है, किन्तु खरतरगच्छ में 'उग्घाडा पोरिसी'। कवि ने खरतरगच्छ की मान्यता को आगम-सम्मत सिद्ध किया है। इक्कीसवाँ अधिकार - प्रस्तुत प्रकरण में शिशु-जन्म, मरण इत्यादि प्रसंगों में सूतक मानने संबंधी अवधारणा को पूर्वाचार्य कृत ग्रन्थों के आधार पर पुष्ट करते हुए यह बताया गया है कि जिन गहों में सूतक हो, वहाँ श्रमण को प्रत्येक प्रकार के सूतक के लिए निर्दिष्ट दिनों तक भिक्षादिक ग्रहण नहीं करना चाहिए। बाईसवाँ अधिकार - अन्य गच्छों के श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र के अन्त में खड़े होकर 'तस्स धम्मस्स केवलिपन्नतस्स'- इस पाठ के उच्चारण करने की परम्परा है, किन्तु खरतरगच्छ में यह परम्परा नहीं है। लेखक ने उक्त पाठ के उच्चारण के स्थान पर खरतरपरम्परानुसार उसके अर्थ का अन्तस् में चिन्तन करना ही शास्त्रसम्मत बताया है। तेईसवाँ अधिकार- जैनों में पर्युषण-पर्व प्रमुख पर्व माना जाता है। यह पर्व किस दिन मनाया जाये, इस प्रश्न को लेकर आन्तरिक विवाद है। प्रस्तुत प्रकरण में समयसुन्दर ने
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