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________________ समयसुन्दर की रचनाएँ यह ग्रन्थ पांच प्रकाशों में विभक्त है। प्रथम प्रकाश में ३७ अधिकार, द्वितीय प्रकाश में ११ अधिकार, तृतीय प्रकाश में १३ अधिकार, चतुर्थ प्रकाश में २८ अधिकार और पंचम प्रकाश में ११ अधिकार हैं। इस प्रकार इसमें कुल १०० अधिकार हैं। प्रत्येक अधिकार की विषय-वस्तु भिन्न-भिन्न है। आगे हम क्रमशः उनका विवरण प्रस्तुत करेंगे। ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में १० श्लोकों में प्रारम्भिक मंगल करते हुए ग्रन्थ का पुरोवाक् लिखा है, जिसमें उन्होंने ग्रन्थ का सामान्य परिचय दिया है। खरतरगच्छ पर किये गये विविध आक्षेपों का निराकरण करना ही ग्रन्थ का मुख्य प्रयोजन बताया गया है। संक्षेप में ग्रन्थ के प्रत्येक अधिकार का वर्ण्य-विषय इस प्रकार है - प्रथम प्रकाश पहला अधिकार- 'सामायिक-व्रत' ग्रहण करते समय खरतरगच्छ में पहले 'सामायिकप्रतिज्ञा-सूत्र' बोलते हैं और पश्चात् 'ईर्यापथिकी' प्रतिक्रमण करते हैं; जबकि कतिपय अन्य गच्छों में पहले 'ईर्यापथिकी' प्रतिक्रमण करते हैं और पश्चात् सामायिक-प्रतिज्ञासूत्र का उच्चारण करते हैं। ग्रन्थकार ने अपने गच्छ की प्रथम सामायिक-प्रतिज्ञा-सूत्र का उच्चारण करने सम्बन्धी मान्यता को आगम-सम्मत सिद्ध किया है। दूसरा अधिकार-खरतरगच्छ में पर्व दिवसों में ही पौषध-व्रत करने की जो परम्परा है, वह किस सीमा तक शास्त्र-सम्मत है, उसे इस अधिकार में प्रमाणित किया है। तीसरा अधिकार - खरतरगच्छ में भगवान् महावीर के षट्कल्याणक माने जाते हैं, जबकि अन्य कुछ गच्छों में पाँच कल्याणक माने जाते हैं । ग्रन्थकार ने प्रस्तुत अधिकार में महावीर के षट्कल्याणक की खरतरगच्छीय अवधारणा को आगम-सम्मत सिद्ध किया है। इसमें च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष - इन पांच कल्याणकों के अतिरिक्त गर्भ संक्रमण नामक छठा कल्याणक भी माना जाता है। चौथा अधिकार - यह अधिकार ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। तपागच्छ के उपाध्याय धर्मसागर ने 'कुमतिकन्दकुद्दाल' (प्रवचन-परीक्षा) नामक ग्रन्थ बनाकर खरतरगच्छ पर अनेक आक्षेप किये। उन आक्षेपों में प्रमुख हैं - खरतरगच्छ की उत्पत्ति जिनेश्वरसूरि से नहीं हुई है, अपितु जिनदत्तसूरि से हुई है; अभयदेवसूरि खरतरगच्छ के नहीं थे, आदि। वि० सं० १६१७ कार्तिक शुक्ला ७ को पाटण में एक संगीति नियोजित की गई, जिसमें सभी गच्छों के आचार्यों ने भाग लिया। इस संगीति में उपाध्याय धर्मसागर को पुनः-पुन: निमन्त्रण देने पर भी वे नहीं आए। अत: संगीति में उ० धर्मसागर को उत्सूत्रवादी घोषित किया गया और खरतरगच्छ पर लगाये गये आरोपों का निराकरण किया गया। अभयदेवसूरि खरतरगच्छ में हुए - यह प्रमाणित हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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