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करने में सफल हो पाया हूँ। साथ ही जीवन में उच्च शिक्षा एवं दीक्षा के प्रेरणा प्रदायक पितृ-पुरुष मुनिराज श्री महिमाप्रभसागर जी के चरण-कमलों में भावपूरित हृदय से श्रद्धा-सुमन समर्पित करना मेरा कर्त्तव्य है। पूज्यश्री का मंगलमय वरद हस्त मेरी अमूल्य थाती है। सत्य तो यह है कि उनकी वरद् छत्रछाया के परिणामस्वरूप ही मैं आज यह ज्ञान-पुष्प निर्मित कर पाने की स्थिति में हूँ।
इस सन्दर्भ में मैं अपने अनन्य आत्मीय भाई मुनिवर श्री ललितप्रभसागर जी को आभार समर्पित करता हूँ, जिन्होंने न केवल प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में, अपितु मेरे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मुझे कृपापूर्ण सहयोग प्रदान किया। उनके प्रति नमन करते हुए एक पथसहचर की अनन्य भावना का गौरव बनाए रखना मेरे जीवन की पूंजी है।
कृतज्ञता-ज्ञापन की इस कड़ी में उन गुरुजनों के प्रति, जिनके व्यक्तिगत स्नेह, प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन ने मुझे सक्रिय सहयोग प्रदान किया है, आभार प्रकट करना भी मेरा परम कर्त्तव्य है। सर्वप्रथम मैं प्रस्तुत गवेषणा के निर्देशक तथा ऋजुता एवं विद्वत्ता की प्रतिमूर्ति डॉ. सागरमल जी जैन का अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होंने अपने स्वास्थ्य एवं समयाभाव की चिन्ता न करते हुए प्रस्तुत गवेषणा के समस्त अंशों को सदैव ध्यानपूर्वक पढ़ा एवं उसमें सुधार तथा संशोधन के लिए मार्गदर्शन किया। वस्तुतः इस प्रबन्ध में उनका आदि से अन्त तक सर्वाधिक सहयोग रहा, जो अविस्मरणीय है। मैं नहीं समझता हूँ कि केवल शाब्दिक आभार प्रकट करने मात्र से मैं उनके प्रति अपने दायित्व से उऋण हो सकता हूँ; जिनसे धर्म, दर्शन और शास्त्र का ज्ञान उपार्जित कर सका और जिनके सहकार से यह महत् कार्य सम्पन्न कर सका, उनके प्रति कैसे आभार प्रकट करूँ , यह मैं नहीं समझ पा रहा हूँ। वे मेरे लिए गुरुतुल्य हैं, मेरे लिए यही गौरव की बात है।
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी का विशाल ग्रन्थागार एवं शांतिपूर्ण वातावरण इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक सिद्ध हुआ है। संस्थान के निदेशक एवं व्यवस्थापक/संचालकों के अतिरिक्त शोध-सहायक डॉ. रविशंकर मिश्र, डॉ. अरुणकुमार सिंह तथा पुस्तकालयाध्यक्ष डॉ. मंगलप्रकाश मेहता एवं अन्य सभी कर्मचारीगण से प्राप्त सहयोग के लिए उनके प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ।
श्री अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर; श्री पूरणचन्द नाहर-संग्रहालय, कोलकाता; जैन भवन, कोलकाता; श्री जिनहरिसागरसूरिज्ञान-भण्डार, पालीताणा; श्री कुशलचन्द्र सूरिज्ञान-भण्डार, वाराणसी आदि विविध संग्रहालयों का भी आभारी हूँ, जहाँ से महोपाध्याय समयसुन्दर के हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हुए।
वात्सल्य-मूर्ति साध्वी-रत्ना, माताजी महाराज श्री जितयशाश्री जी म. की शुभाशंसाएँ मेरी लक्ष्य-पूर्ति में सहायक रहीं। सभी शुभेच्छुकों एवं सहयोगियों के प्रति आभार-ज्ञापन।
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