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________________ ७०० श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रेय हिन्दी जैन स्पर्श करते हुये पंचतंत्र की कहानियों की भांति अनेक शाखा-प्रशाखाओं में फट गये हैं। एक ही कहानी में अनेक छोटे-बड़े स्वतन्त्र कथानक गुंथे हुये हैं। इन प्रासंगिक कथानकों को निश्चित रूप से स्वतन्त्र कहानियों का रूप दिया जा सकता है। लघु कथाओं का रूप बड़ा ही कलात्मक है और उनमें कम पात्रों तथा कम घटना-व्यापारों द्वारा मानव. जीवन के सारभूत प्रसंगों की बड़ी तीव्रतम व्याख्या हुई है । वस्तुविलास की दृष्टि से इन कथानकों के सहज ही तीन भाग किये जा सकते है । आरम्भ, मध्य और अन्त । कथा के आरम्भ भाग में हमें मुख्य पात्रों का परिचय, कहानी की वास्तविक समस्या का संकेत और आगे आनेवाली घटनाओं का सूत्र मिलता है। मध्य भाग में घटनाओं का विस्तार, पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का उभार मिलता है। यहीं कहानी की आत्मा वास्तविक रूप से प्रस्फुटित होती है। कहानी का अंतभाग उस की परम सीमा है । यहां कथाकार अपने पाठकों को एक निश्चित लक्ष्य पर लाकर छोड़ देता है । कहानी की मूल चेतना कथाकार के सन्देश को पाठकों तक पहुंचाती हुई अपने प्रकृत रूप में व्यक्त होती है। ___यह सत्य है कि जैन कथा साहित्य में घटनाबहुल कथानकों की ही प्रधानता है, फिर भी कथानक घटनाप्रधान नहीं कहे जा सकते । इसका स्पष्ट कारण है। घटनायें यहां निमित्त मात्र बनकर आती हैं और उन का मूल उद्देश्य पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं को उभारते हुये पाठक को एक निश्चित लक्ष तक पहुंचाना होता है । कथाकार घटनाओं की योजना इस ढंग से करता है कि असत् पात्रों का क्रोध, मान, मद, मोह, लोभ, हिंसा आदि मलिन वासनाओं से आछन्न चरित्र अपने प्रकृत रूप में पाठकों के सामने रखा जा सके, तथा सद् पात्र असद् पात्रों द्वारा निरन्तर कष्टभोगी होने पर भी आदर्श चरित्र का उदाहरण प्रस्तुत कर सके। इन असद् पात्रों का कहीं तो बड़ा करुणा. जनक अन्त होता है और कहीं चरित्र परिवर्तन के द्वारा वे भी आदर्श जीवन व्यतीत करने लगते हैं । असद् पात्रों के चरित्र परिवर्तन में आकस्मिक घटनाओं की अवतारणा बहुत कम की गई हैं । इस के विपरीत यह चरित्र परिवर्तन या तो मुनि उपदेश के प्रभाव से हुआ है अथवा दूसरों का खोटे कर्मों द्वारा बूरा अन्त देखकर अथवा सद् पात्रों के ही आदर्श जीवन से प्रभावित होकर अथवा अपने दुःखित जीवन के पश्चात्ताप द्वारा। कथानक की भांति जैन कथा साहित्य की पात्रयोग्यता भी बड़ी व्यापक और गहन है । उस में राजा से लेकर रंक, ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल, साहूकार से लेकर चोर,
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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