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________________ ६८४ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ हेमचन्द्राचार्य-ये गुजरात के स्वर्णयुग के दैदीप्यमान सूर्य थे । इन्हें इम अपने युग के सभी ज्ञान, विज्ञान का विश्वकोष ( इनसाइक्लोपीडिया ) या ज्ञानमहोदधि कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। सम्राट् कुमारपालने इनकी विद्वत्ता से मुग्ध होकर कलिकालसर्वज्ञ की उपाधि दी थी। इन्होंने नये व्याकरण, नये छन्दशास्त्र, नये अलंकार, नये तर्कशास्त्र, नये काव्य (द्वयाश्रय ) और नये जीवनचरित्रों की रचना की थी। ये संस्कृत, प्राकृत और अपग्रंश भाषाओं के समानरूप से पारङ्गत विद्वान् थे। इन्होंने अपने छन्दोनुशासन के ८ अध्यायों में से द्वितीय और तृतीय में संस्कृत छन्दों का, चतुर्थ में प्राकृत मात्रावृतों का तथा पंचम से सप्तम तक अपभ्रंश छन्दों का विस्तार से वर्णन किया है तथा पहले में छन्दशास्त्र की प्रारंभिक संज्ञाएं और ८ वें में प्रसारादि का विवेचन दिया है। __ हेमचन्द्र प्रत्येक विषय में शास्त्रीय विवेचनावाले पण्डित थे। इन्होंने अपने इस ग्रन्थ में प्राचीन नवीन सभी छन्दों का वर्णन बड़ी सुन्दरता से किया है तथा अनेक नये छन्दों के लक्षण और इनके उदाहरण स्वयं निर्मित किये हैं। इनका उपयोगी ग्रन्थ सूत्रशैली में लिखा गया है तथा उस पर इनकी स्वोपज्ञवृत्ति भी मिलती है। आचार्य हेमचन्द्र का समय ११४५ से १२२९ माना जाता है । रत्नमंजूषाकार-दुर्भाग्य से ग्रन्थकर्ता का नाम अज्ञात है और टीकाकार का भी । पर टीकाकार जैन थे यह प्रारम्भिक मङ्गलाचरण से मालूम होता है। जिस में उनने वीर ( महावीर ) को नमस्कार किया है तथा अनेकों छन्दों के जैनत्व से सम्बंधित उदाहरण दिये हैं । सम्भव है ग्रन्थकार भी जैन थे; क्यों कि उन्होंने पिङ्गल आदि द्वारा सम्मत ८ गणों की संज्ञाओं का नाम ज, भ, आदि रूप से न देकर भिन्न रूप से दिया है तथा १८-२० ऐसे नये छन्दों का वर्णन किया है जो कि जैन परम्परा के आचार्य हेमचन्द्र को ही मालम थे । ग्रन्थ में ८ अध्याय हैं जिनमें केवल लौकिक संस्कृत छन्दों का वर्णन सूत्रशैली में किया गया है । ८ गणों के नामकरण में भी दो क्रम अपनाये गये हैं। एक तो व्यञ्जनक्रम क, च, त, प, श, ष, स, ह और - वरक्रम आ, ऐ, औ, ई, अ, उ, ऋ, इ। इसके अतिरिक्त चार द्विकों को आविष्कृत किया गया हैं जो य, र, ल, व नाम से हैं। गुरु की संज्ञा ' म ' और लघु को ' न ' कहा गया है।' कविदर्पणकार-दुख है कि इस ग्रन्थ के कर्ता का नाम अब तक नहीं मालूम हुआ। इसके अन्थकार और टीकाकार हेमचन्द्र के छन्दोनुशासन से अच्छी तरह परिचित थे । इस १. प्रो. वेलगकर द्वारा सम्पादित एवं भारतीय ज्ञानपीठ दुर्गाकुण्ड, बनारस से प्रकाशित 'रत्नमंजूषा'।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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