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________________ साहित्य संत-साहित्य के निर्माण में जैन हिन्दी कवियों का योगदान । ६७३ मोटा महीं कात कर भाई, कर अपना सुरझेरा । अंत आगमें इंधन होगा, भूधर समझ सवेरा ॥' भूधरदास के ही समकालीन एक अन्य जैन कवि द्यानतराय ( ज० सं० १७३३) की भी कुछ ऐसी रचनाएँ मिलती हैं जो उक्त प्रकार की हैं । द्यानतराय कहते हैं अब हम अमर भए, न मरेंगे । तन कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों करि देह धेरैगे । उपजे मरै काल ते प्रानी, तातें काल हरेंगे। रागद्वेष जग बंध करत हैं, इन को नाश करेंगे । देह विनाशी मैं अविनाशी, भेद ज्ञान पकरेंगे। नाशी जासी हम थिर वासी. चोखे हों निखरेंगे। मरे अनंत वार विन समझे, अब सब दुख विसरेंगे । द्यानत निपट निकट दो अक्षर, विन सुमरै सुमरेंगे ।। जिसे पढ़ते ही हमें कबीर साहब का वह पद स्मरण हो जाता है जिसका आरंभ " हम न मरें मरि है संसारा, हमकू मिल्या जियावनहारा " से होता है । इनका एक ऐसा ही दूसरा पद भी नीचे लिखे अनुसार है जिसके साथ संत रैदास के एक पद का आश्चर्यजनक साम्य दीख पड़ता है । जैसे ऐसो सुमिरन कर मेरे भाई, पवन थंभै मन कितहुं न जाई ॥ X x सो तप तपो बहुरि नहिं तपना, सो जप जपो बहुरि नहिं जपना। सो व्रत धरो बहुरि नहिं धरना, ऐसो मरो बहुरि नहिं मरना ॥" इसके साथ संत रैदास के निम्न लिखित पद की तुलना की जा सकती है जिसकी कुछ पंक्तियां जैसी की तैसी यहां रख दी गई हैं। रैदास कहते हैं ऐसा ध्यान धरौ वरो वनवारी, मन पवन है सुखमन नारी ।। टेक ॥ सो जप जपों जो बहुरि न जपना । सो तप तपों जो बहुरि न तपना ॥१॥ सो गुरु करौं जो बहुरि न करना । ऐसो मरौं जो बहुरि न मरना ॥ २॥ १. हि. जै० सा० का सं० इतिहास पृ० १७५। २. 'अध्यात्मपदावली' पृ० २६१। ३. कबीर ग्रंथावली पद ४३, पृ० १०२। ४. ' अध्यात्मपदाबली' पृ. २६ । ५. रैदासजीकी वाणी (वे. प्रे० प्रयाग) पृ० २६-७ ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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