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________________ ६७० श्रीमत् विजयराजेन्द्रसरि-स्मारक-ग्रंथ हिन्दी जैन विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध काल में एक जैन हिंदी कवि आनंदघन भी थे जो श्वेताम्बर संप्रदाय के अनुयायी थे। इनका नाम 'लाभानंद ' भी था और ये एक अच्छे विद्वान् एवं कवि थे जिनकी · आनंदघन बहोत्तरी' और ' आनंदधन चौवीसी' ग्रन्थ प्रकाशित हैं । इन्होंने अपनी रचनाओं के अंतर्गत संत-साहित्य की शब्दावली का बहुत प्रयोग किया है और इनका वर्ण्य विषय भी उसीके अनुरूप है। इनकी रचनाओं में यत्र तत्र पायी जानेवाली उक्तियां भी बहुत सजीव हैं और जान पड़ता है कि वे इन्हें अपने निजी अनुभव से कहते हैं। जैसे, जेणे नयण करि मारग जोइये रे नयणते दिव्य विचार। शुद्ध श्रद्धान विण सर्व किरिया कही, छार परि लीयणो सरस जाणो ।" एक पखी कि प्रीत बरे पड़े, उभय मिल्या होवे संध ।' अनुभव गोचर वस्तु को रे, जाणवो यह ईलाज । कहन सुनन को कछु नहि प्यारे, आनंदघन महराज ॥ मनसा प्थाला प्रेम मसाला, ब्रह्म अग्नि पर जाली। तन भाठी अवटाइ पियै कस, जागै अनुभव लाली ॥ इत्यादि और इसी प्रकार, इनके अनेक पद भी बहुत सरस और सुंदर हैं । जैसे साधु भाइ आपन रूप जब देखा । करता कौन कौन फुनि करनी, कौन मांगेगो लेखा। साधु संगति अरू गुरू कृपाते, मिट गई कुल की रेखा । आनंदघन प्रभु परचौ पायो, उतर गयो दिल भेखा ॥ तथा, राम कहो, रहमान कहो, कोउ कान कहो महादेवरी । पारसनाथ कहो, कोई ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री ।। भाजन भेद कहावत नाना, एक मृतिका रूप री । तैसे खंड कल्पनारोपित, आप अखंड सरूपरी । निजपद रमे राम सो कहिए, रहिम कहे रहिमान री। कर्षे करम 'कान' सो कहिए, महादेव निर्वाण री ॥ परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिह्न ते ब्रह्म री । इहि विधि साधो आप आनंदघन, चैतनमय निष्कर्म री ॥' ३.-७. विश्वनाथप्रसाद मिश्र : 'घन आनंद और आनंदघन' काशी, सं० २००२) पृ. ३३४, ३४३, ३४४, ३६६, और ३६९ । ८. 'घनानंद और आनंदघन' पृ० ३८८ । १. वही, पृ. ३८८ ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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