SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 773
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६४ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसरि-स्मारक-ग्रंथ जोइंदु का समय ईस्वी सन् की छठी शताब्दी में माना गया है जो अधिकतर अनुमान पर ही आश्रित है। इनके ग्रंथ ' परमात्मप्रकाश ' में प्रधानतः आत्मोपलब्धि, ज्ञानतत्व एवं कर्मवाद की चर्चा की गई है और इस प्रकार यह एक आध्यात्मिक रचना है। तदनुसार जोइंदु ने इसमें प्रसंगवश बहुतसी ऐसी भी पंक्तियों का समावेश कर दिया है जो संत-साहित्य के लिये आदर्श का काम कर सकती हैं। उदाहरण के लिये वे कहते हैं कि " हे जोगी, अपना मन निर्मल कर लेने पर ही शांत शिवके दर्शन होते हैं और वह धनरहित आकाश में सूर्य की भांति प्रकाशमान हो जाता है"। " रागद्वेष का परित्याग करके जो सभी प्राणियों को एक समान जानता है और इस प्रकार समभाव में प्रतिष्ठित है वह शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। " " आत्मज्ञानी वही है जो, चाहे कोई किसी का मित्र हो अथवा शत्रु हो, सबके साथ, सभी जीवों को एक मानने की दृष्टि से व्यवहार करता है।" मुनि रामसिंह जोइंदु के परवर्ती कवि हैं और उनके जीवन-काल के विषय में अनुमान किया गया है कि वह ईस्वी सन् दसवीं शताब्दी के लगभग ठहराया जा सकता है। उनकी एक रचना 'पाहुड़ दोहां के नाम से उपलब्ध है जो प्रायः 'परमात्मप्रकाश' की ही भांति आध्यात्मिक विषयों से संबंध रखती है और जिसका लगभग पांचवां अंश ठीक उसी ग्रंथ जैसा है। मुनि रामसिंह का कहना है, " जिसका मन जीतेजी पंचेंद्रियों के साथ मर गया उसे ही मुक्त मानना उचित है, उसीने निर्वाण पथ को पाया है, " इसी प्रकार " मैं सगुण हूं, किंतु मेरा प्रियतम लक्षणों से रहित और निःसंग है जिससे, एक ही कोष्टक में रहते हुए भी, मैं उनसे न मिल सका, " तथा, " अरे शिर मुंडानेवालों का सिरदार ! तूने अपना शिर तो मुंडा लिया, किंतु अपने चित्त १. “परमात्मप्रकाश' (बंबई, सं० १९९३ ) Introduction p. 67. २. जोइय णियमणि णिम्मलए, पर दीसइ सिउ संतु। अंबरि णिम्मलि घण रहिए, भाणुजि जेम फुरंतु ॥ ११९ ॥ वही• पृ० १२० । ३. रायदोस वे परिहरिवि, जे सम जीव णियति । ते समभाबि परिट्ठिया, सहु णिव्वाणु लहंति ॥ १०० ॥ वही• पृ० २४२ । ४. सत्तु वि मित्तु वि अप्पु परु, जीव असेसु नि एइ । एक्कु करेविणु जो मुणइ, सो अप्पा जाणेइ ॥ १०४ ॥ वही, पृ० २४६ । ५. 'पाहुड़दोहा' ( कारंजा, सन् १९३३ ई०), भूमिका, १०३३ । १. जसु जीवंतहं मणु मुवउ, पंचेंदियह समाणु । सो जाणिजइ मोक्कलउ, लद्धउ पहु णिव्वाणु ॥ १२३ ॥ पा. दो. पृ. ३६ ॥ .. ह सगुणी पिउ णिग्गुणउ, मिल्लखणु णीसंगु । एकहि अगि वसंतयंह, मिलिउण अंगहि अंगु ॥१.०॥ वही, पृ० ३०॥
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy