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संत-साहित्य के निर्माण में जैन हिन्दी-कवियों का योगदान
श्री परशुराम चतुर्वेदी वकील, बलिया उत्तरप्रदेश हिंदी-साहित्य के इतिहास में संत-साहित्य के उदय और विकास की कथा अपना एक पृथक् महत्त्व रखती है। इसका आरंभ उस समय होता है जब हिंदी भाषा का अभी तक अपना शुद्ध रूप तक निखरा नहीं रहता और वह अपभ्रंश के अति निकट रहती है। उस काल में इस साहित्य की रचना का आरंभ बौद्ध एवं जैन कवियों के द्वारा होता है, जो अपने निजी ढंग से इसका सूत्रपात करते हैं। वे अपने-अपने धर्मों के अनुसार आध्यात्मिक रहस्य की व्यापक और विश्वजनीन बातों की चर्चा करते हैं और सत्य की महत्ता को न समझते हुए भूलने भटकनेवालों को सजग और सचेत करने की चेष्टा भी करते हैं। उनकी उक्तियों में अनुभूतिजन्य गंभीरता है और उनकी शैली में सहज भाव की चोट और स्पष्टवादिता का तीखापन है जो पाठकों वा श्रोताओं को मर्माहत किये विना नहीं रहता । इस प्रकार संत-साहित्य का बीजारोपण वस्तुतः उनके निजी उद्गारों, उपदेशों और फटकारों में ही हो जाता है जो फिर समय पा कर नाथपंथी जोगियों की रचनाओं में अंकुरित एवं पल्लवित होने लगता है और तब तक हिंदी भाषा में भी अपने अल्हड़पन की शक्ति आ जाती है । नाथपंथियों के साहित्य का निर्माण होने लगने तक अपभ्रंश के विकसित रूप में प्रादेशिक विभिन्नताएं भी आने लग जाती हैं। इसके आधार पर क्रमशः प्रांतीय भाषाओं का उदय हो जाता है जो अपनी प्रारंभिक दशा में अपभ्रंश-साहित्य की भावधारा से भी प्रभावित रहा करती है, और इसी कारण उनमें से कई एक के आदिकालीन साहित्य में हमें उपर्युक्त क्रम विकास को प्रोत्साहन मिलता दीखता है। उदाहरण के लिए उड़िया और मराठी साहित्यों के विषय में यह बात अधिक स्पष्ट हैं; क्यों कि ये दोनों अपने प्रारंभिक दिनों में विशेष कर क्रमशः बौद्धों तथा जैनों और नाथपंथियों की रचनाओं द्वारा प्रभावित रहा करते हैं । फिर तो संत-साहित्य के निर्माण में शैवों, वैष्णवों एवं सूफियों तक का सहयोग उपलब्ध होने लग जाता है और संत कबीर के समय तक आते-आते इसका विशुद्ध रूप उभर आता है।
संत-साहित्य के निर्माण कार्य में, उसकी अपभ्रंश कालीन दशा से ही हाथ बंटानेवाले जैन कवियों में मुनि रामसिंह एवं जोइंदु के नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं और केवल इन दो की भी चर्चा कर देना, कदाचित् , अपर्याप्त नहीं कहा जा सकता । इन दोनों में से
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