SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 759
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की हिन्दी को देन राहुल सांकृत्यायन व्यक्तियों की तरह उनका धर्म भी देश-काल से प्रभावित होता है, पर कुछ धर्म ऐसे प्रभाव या उसके उपयोग को मानने से इन्कार करते हैं, और कुछ उसका स्वागत करते हैं भारत में ब्राह्मण-धर्म इसे मानने से इन्कार करके अपने धर्मग्रन्थों और धार्मिक क्रियाकलापों को संस्कृत के साथ बहुत पहले ही नत्थी कर चुका था । बुद्ध के समय उनके सूक्त (सुत्तों ) को लोग अपनी-अपनी भाषा में दोहराते थे। बौद्ध पिटक और जैन पिटक अपने संस्थापकों के शताब्दियों बाद तक कण्ठस्थ चले आये और ब्राह्मणों के वेदों की तरह लोग गुरुमुख से श्रुतपथ द्वारा सुनकर उन्हें याद करते थे। बुद्ध के जीवन ही में कुछ शिष्योंने राय दी थी कि भाषा की विषमता को हटाने के लिये बुद्ध-वचनों को छन्द ( वेद ) के भाषा में कर दिया जाये । बुद्ध ने इसका निषेध किया, और कहा कि अपनी-अपनी भाष (सकाय निरुतियाँ) में लोग मेरे वचनों को पढ़ें। उनका जोर भाषा पर उतना नहीं था, जितन अर्थ पर। यह भी कह सकते हैं कि जिस भाषा द्वारा समझने में लोगों को सुगमता हो उसी भाष का प्रयोग करना चाहिये । भाषा वही सुगम हो सकती है जिसे जनता बोलती है। लेकिन जन-प्रवाह की तरह भाषा का प्रवाह भी क्षण-क्षण परिवर्तनशील है। बुद्ध से कुछ शता दियां पहले छन्दमयी वैदिक संस्कृत भाषा बोली जाती थी, फिर बुद्ध के कुछ पहले से । भाषायें आर्य भारत में प्रचलित हुईं, जिनको हम सामूहिक रूप से पालि कह सकते हैं यद्यपि मूलतः पालि बुद्ध के मुख से निकली हुई पंक्तियों को ही कहा जाता था । बुद्धनिर्वाण (४८३ ई० पू० ) के पांच शताब्दियों बाद पालियों का स्थान अनेक भाषाओं लिया, जिन्हें प्राकृत कहते हैं। ये भी पांच शताब्दियों के शनैः-शनैः परिवर्तन के बाद इतनी बदल गई कि उनका स्थान उनकी पुत्री अपभ्रंशोंने लिया, जो अपने व्याकरण छन्द या संस्कृत, पालि और प्राकृत के नजदीक नहीं हैं, बलिक आज की उत्तरी भाषाओं के बहुत धनिष्ट सम्बन्ध रखती हैं । यद्यपि जहां तक उच्चारण का सम्बन्ध है, उन्होंने पूर्णत प्राकृत का अनुसरण किया । अपभ्रंश प्रायः सभी अ-द्रविड़ भारती भाषाओं की जननी हैं बुद्ध अपने वचनों को छन्द की भाषा में अनुवादित (न) करके केवल अपने समय के भिन्न-भिन्न जनपदों की पालियों का समर्थन ही नहीं करना चाहते थे, बल्कि उन्होंने स्वकीर
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy