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________________ तीर्थ-मंदिर जैनस्थापत्य और शिल्प अथवा ललितकला। जैन मंदिरों में जैनेतर धर्म भी सुरक्षित हैं। जैसे हिन्दू पौराणिक कथाओं के कई चित्र प्रायः जैन मंदिरों की छतों में, मण्डपों में, स्तम्भों पर, भित्तियों पर उत्कीर्णित पाये जाते हैं और वे भी पूर्ण वैभव और पूर्णता के साथ, जितना कुशल शिल्पी की टांकी उनको चित्रित और उत्कीर्णित कर सकी, उतने । जैन मंदिरों का निर्माण अधिकतर दुर्भिक्ष और विषम स्थितियों में ही इनके दयाल निर्माताओंने अनहीन जनता की सेवा करने की भावनाओं से ही प्रेरित हो कर करवाया है और उस अन्नहीन जनता का समूचा भाग जैनेतर ही रहा है। धर्मदृष्टि से तीर्थों का कितना बड़ा महत्व है, उस पर यहां कहना मेरा विषय नहीं है; अतः उस दृष्टि से यहां कुछ भी नहीं कह रहा हूं। जैन मंदिरों की रचना जैनेतर मंदिरों से मिलती हुई हो कर भी भिन्न है। एक पूर्ण जैन मंदिर में इतने अंग होते हैं:-सीढ़ियां, शृङ्गार-चौकी, परिकोष्ठ, सिंहद्वार, प्रतोली, भ्रमती सभामण्डप, नव चौकिया, खेला-मण्डप, निजमंदिर-प्रतोली, निजमंदिर द्वार, मूल गंभारा और मूल गंभारा में वेदिका। अधिकतर जिनालय साधारण जमीन से कुछ ऊंचाई तक चतुष्क बनाकर उस पर बनाया जाता है। कहीं प्रतोली में आजू-बाजू कोटरियां बनी हुई होती है-जैसे श्री राणकपुरतीर्थ और शत्रुञ्जयतीर्थ के कई मंदिरों में विद्यमान हैं । इन कोटरियों में प्रायः खण्डित प्रतिमायें अथवा नवबिंब जिनकी स्थापना होना शेष होता है रक्खी जाती हैं। प्रतोली से फिर सीढ़ियां चढ़कर एक चबूतरा (चतुष्क) आता है। प्रतोली के उपर कहीं-कहीं महालय बना हुआ होता है जो शृङ्गार-चौकी के उपर बने हुये गुम्बज से मिला हुआ बड़ा ही दर्शनीय प्रतीत होता है। जहां जिनालय बावन अथवा चौवीस कुलिकाओंवाळा हुआ वहां प्रतोली से ही परिकोष्ठ का प्रारम्भ हो जाता है, जिस में मूळ मंदिर को घेर कर चतुष्क के चारों पक्षों पर कुलिकाओं की रचना होती है। कुलिकाओं के आगे स्तम्भवती वरशाला होती है, जहां चैत्यवंदन आदि क्रियायें की जाती हैं। वरशाला के नीचे प्रमती और भ्रमती में चारों कोण पर कहीं २ कोण कुलिकाएं बनी हुई होती हैं । भ्रमती से फिर सभामण्डप और इससे दो-डेढ़ फिटकी ऊंचाई पर नव चौकिया बना हुआ होता है। सभामण्डप आठ, बारह या सोलह स्तम्भों पर बनाया जाता है। बृहद् आयोजनवाली मण्डलियां यहीं अभिनय एवं नृत्यकौतुक करती हैं। स्तंभों पर, उपर मण्डप के भीतर कलाकाम बड़ा ही दर्शनीय और धर्मकथाओंका भाव-अंकन रूप होता है। नव चौकिया वैसे ही नव मण्डपवाला ही होता है, परन्तु कहीं २ नव से कम मण्डप भी होते हैं और कहीं मण्डपों की जगह छत भी बनी हुई होती है। नव चौकिया कहीं चोकोर और कहीं षट्कोण या अष्टकोण भी होता है । नवचौकिया
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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