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मथुरा की जैन कला श्री कृष्णदत्त वाजपेयी, एम. ए., विद्यालङ्कार. अध्यक्ष, पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा
मथुरा में ललित कलाओं के विकास का एक लम्बा इतिहास है। भारत का प्राचीन धार्मिक केन्द्र होने के कारण मथुरा में ईस्वी सन् से कई सौ वर्ष पहले स्थापत्य और मूर्तिकला का प्रारंभ हो चुका था। इस नगर की गणना भारत के प्रधान कला-केन्द्रों में की जाने लगी थी और मथुरा की एक विशेष कला-शैली बन गयी थी। ईरान और यूनान की संस्कृतियों का भारतीय संस्कृतियों के साथ जो समन्वय हुआ उसका मूर्त रूप हमें मथुरा की प्राचीन कला में दिखलाई पड़ता है । शक और कुषाणवंशी राजाओं के शासन-काल में मथुरा की मूर्तिकला को अधिक विकसित होने का अवसर प्राप्त हुआ। इस समय से जैन, बौद्ध तथा वैदिक-भारत के इन तीनों प्रधान धर्मों को यहां के सहिष्णुतापूर्ण वातावरण में साथ-साथ बढ़ने का अच्छा अवसर मिला। यह मथुरा के इतिहास में एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना कही जा सकती है । ईस्वी पूर्व पहली शती से लेकर गुप्तकाल के अंत तक उक्त तीनों धों से संबंधित कलावशेष मथुरा में बड़ी संख्या में उपलब्ध हुए हैं । गुप्तकाल के बाद भी मथुरा में मूर्तिकला और वस्तुकला की उन्नति कई शताब्दियों तक जारी रही, यद्यपि उसमें पहले-जैसा सौष्ठव और निजस्व न रहा । दिल्लीसस्तनत के लगभग सवा तीनसौ वर्षों के आधिपत्यकाल में इस कलात्मक विकास में गतिरोध उत्पन्न हुआ। मुगलकाल में अकबर के समय मथुरा में जो सांस्कृतिक पुनरुत्थान हुआ उसके फलस्वरूप साहित्य, संगीत तथा चित्रकला का फिर से उद्धार हो सका।
मथुरा के कंकाली टीला से प्राप्त एक मूर्ति की चौकी पर खुदे हुए द्वितीय शती के एक लेख से पता चलता है कि उस समय से बहुत पूर्व मथुरा में एक बहुत बड़े जैन स्तूप का निर्माण हो चुका था । लेख में उस स्तूप का नाम · देवनिर्मित स्तूप ' दिया है। वर्तमान कंकाली टीला की भूमि पर उस समय से लेकर लगभग ११०० ईस्वी तक जैन इमारतों
और मूर्तियों का निर्माण होता रहा। इस टीले की खुदाई से सैंकडों महत्वपूर्ण जैन कलाकृतियां प्राप्त हो चुकी हैं।
___ मथुरा-कला में जैन-मूर्तियों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है १-तीर्थकर प्रतिमाएं, २-देवियों की मूर्तियां तथा ३-आयागपट्ट आदि कृतियां ।
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