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________________ तीर्थ-मंदिर कोरटाजी तीर्थ का प्राचीन इतिहास । 'ॐ नाढ़ा' अक्षर उत्कीर्णित हुए देख पड़ते हैं । इससे ज्ञात होता है कि ये मन्दिर नाहड के पुत्र ढाकलजीने अपने श्रेय के लिये बनवाये हों। नाहड और सालिग के कुटुंबियों द्वारा कोरंटादि नगरों में नाहेडवसहि प्रमुख ७२ जिनालय बनवाने का उल्लेख उपदेशतरंगिणी अन्धकारने किया भी है। इन में प्रथम जिनालय की मंडप-स्तंभमालाएं यशश्चन्द्रोपाध्याय के शिष्य पद्मचंद्र उपाध्यायने अपनी माता सूरी और ककुभाचार्य के शिष्य भट्टारक स्थूलिभद्रने निज माता चेहणी के श्रेयोऽर्थ बनवाई हैं, ऐसा दो स्तंभों के लेखों से ज्ञात होता है। इन दोनों की प्राचीन मूलनायक प्रतिमाएं खंडित हो जाने से, उनको मन्दिरों की भ्रमती में भंडार दी गई और उनके स्थान पर एक ऋषभदेव प्रतिमा संवत् १९०३ माघ शु० ५ मंगलवार के दिन और दूसरी पार्श्वनाथ प्रतिमा सं. १९५५ फाल्गुण कृ० ५ को प्रतिष्ठित एवं विराजमान की गई हैं। प्रथम के प्रतिष्ठाकार सागरगच्छोय श्री शान्तिसागरसूरिजी और द्वितीय के सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्री विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी हैं । प्राचीन मूर्तियों की प्राप्ति: सब से प्राचीन जिस महावीर मन्दिर का ऊपर उल्लेख किया गया है, उसके परि. कोष्ट का संभारकार्य कराते समय बाये ओर की जमीन खोदने पर दो हाथ नीचे सं० १९११ ज्येष्ठ शु०८ के दिन पांच फुट बडी सफेद पाषाण की अखंडित श्रीऋषभदेव भगवान् की एक प्रतिमा और उतने ही बडे कायोत्सर्गस्थ दो बिंब एवं तीन जिनप्रतिमाएं निकली थीं । कायोत्सर्गस्थ प्रतिमाओं में एक संभवनाथ और एक दूसरी शान्तिनाथ भगवान् की हैं । इनकी प्रतिष्ठा सं. ११४३ वैशाख शु० २ गुरुवार के दिन बृहद्गच्छीय श्री विजयसिंहसूरिजीने की है । इसी प्रकार संवत् १९७४ में 'नहरवा' नामक स्थान की जमीन से १३ तोरण और चार धातुमय जिनप्रतिमाएं निकली थीं । अब तक समयसमय पर कोरटाजी की आसपास की जनीन से छोटी-बडी ५० प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं जो सभी प्राचीन और सर्वागसुन्दर हैं। इन के प्रतिष्ठाकार देवसूरिजी, शान्तिसूरिजी और ++ + सूरिजी आदि आचार्य हैं। कोरटावासियों का कहना है कि यदि दस-वीस हजार का खर्च उठा कर यहां की जमीन का खोदकाम कराया जाय तो सैंकडों प्राचीन जिनप्रतिमाएँ निकलने की संभावना है। नया जैन मन्दिर___ यह मन्दिर कोरटाजी के पूर्व पक्ष पर अति विशाल, रमणीय एवं शिखरबद्ध है। १ मंत्रिणा दृढधर्मरङ्गण । ७२ जनविहारा नाहड़वसहि प्रमुखाः कारिताः कोरंटादिषु प्रतिष्ठिताः उपदेशतरंगिणी ५.१०३.
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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