SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 680
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और उसका प्रसार भगवान् मदावीर की वास्तविक जन्मभूमि वैशाली। ५८९ तेरह को मनाया जाने लगा और उसी साल से इस महोत्सव में जैन भी संमिलित होने लगे । उन्होंने १९४८ से ही वैशाली में जैनशास्त्रानुमोदित ढंग से महोत्सव - तिथि ( चैत सुदी तेरह ) पर श्री महावीर जन्मोत्सव भी मनाना शुरू किया । इस उत्सव में सौराष्ट्र और अहमदाबाद तक के जैन संमिलित होने लगे हैं । I प्राचीन इतिहास में दक्षिण में मुंगेर ( मुंगेर जिले का वह भाग जो गंगा के दक्षिण है ) का महत्त्वपूर्ण स्थान है । डाक्टर सुविमलचंद्र सरकार ( १८८९ - १९५४ ) ई० के मतानुसार वहां का अभयपुर नामक नगर चंद्र राजाओं ( पिछले मौयों की एक शाखा जो अपने को चंद्रगुप्त मौर्य के वंशज बतलाते थे ) की राजधानी था । अतएव अभी भी उड़ेन - मनकट्ठा इलाके में बहुत-से प्राचीन अवशेष मिलते हैं। वहां मिले अभिलेखों को मेरे मित्र डाक्टर प्रितोष वनर्जी ने पढ़ा है और ' पटना युनिवर्सिटी जर्नल' में छपवाया है । डाक्टर सरकार का विचार है कि उडेन ( प्राचीन उड्डीयान ) में पहले बौद्ध विहार भीं था । इसी प्रकार लखीसराय - किउल इलाके में भी प्राचीन मूर्तियों का पाया जाना संभव है । जो मूर्तियां अथवा ईंटें मिलती हैं उनकी जांच प्रामाणिक तौर से नहीं करायी जाती । फलतः उन्हें लोग केवल अति प्राचीन ही नहीं मानते, वरन् भगवान् महावीर के समय तक खींच ले जाते हैं । ११ अप्रेल १२ जून, १९४९ के ' आर्यावर्त' में लिच्छ बाढ़ के पक्ष में जो लेख लिखे गये थे वे इसी प्रकार के पुरातत्त्ववेत्ताओं द्वारा लिखे गये मालूम पड़ते हैं, जो लिच्छवाड़ इलाके में पाई गई बड़ी बड़ी ईंटों को छट्ठी शताब्दी ईसा पूर्व की कह बैठते हैं । ऐसे लोगों को जहां कहीं कोई भग्नावशेष मिला कि उसे चट ईसा के पूर्व छट्ठी सदी का मान बैठे और वह स्थान भगवान् महावीर की जन्मभूमि बन गया ! वस्तुतः मुसलिम - काल में इन्हीं जैसे विद्वानों ने उस समय के भोले-भाले और प्राचीन इतिहास एवं परंपरा के ज्ञान से रहित जैनों को ध्वनि-साम्य के कारण यह सुझाया होगा कि लछुआर ( लिच्छवाड़ ) ही लिच्छवियों का प्राचीन स्थान है और तब वहां कल्पना - तीर्थ की स्थापना हुई होगी । यह विश्वास उस समय पक्का हो जाता है जब हम पहले लेख में पढ़ते हैं-" उच्चारण-दोष से ' बहुशाल' का ' बहुवारि ' हो जाना भी विशेष असंभव प्रतीत नही होता । " कहां शाल का वृक्ष और कहां वारि अर्थात् जल ? कुछ और दिमागी कसरत की जरूरत है ' भंजन ' जी । दूसरे लेख के अंत में लिखा है - " मोरार का अपभ्रंश होते-होते इन दिनों मंजोस हो गया है। श्वेतिका का अपभ्रंश होते-होते सिकंदरा हो गया है ।" सिकंदरा का संबंध किसी सिकंदर से हो सकता है, न कितिका से - यह इतनी स्वयंसिद्ध बात है कि इसपर किसी टिप्पणी की आवश्यकता ही नहीं ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy