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________________ ५८६ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक - ग्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता तब इसे उजाड़ पाया । उस समय यहाँ बौद्ध संघाराम खंडहर हो चले थे; जो थे, उनमें भी बहुत कम भिक्षु रहते थे । दस-बीस देव मंदिर भी थे । हुएनसांग को वहाँ निर्मथमतानुयायी (जैन) अधिक संख्या में मिले । पाल - युग में पूर्वी भारत में बौद्ध-मतावलंबियों की जड़ काफी जम गयी तथा नालंदा, विक्रमशिला, उडयंतपुरी और वज्रासन के बौद्ध महाविहारों से इस काम में पर्याप्त सहायता पहुँची । वैशाली में बुद्ध की मूर्तियां भी बनने लगीं, जिनमें एक अभी भी कोल्हुआ में मौजूद है । इस समय यहाँ जैनों का प्रभाव कुछ कम हो गया मालूम पड़ता है, यद्यपि जैन तीर्थंकर की इस युग की बनी एक मूर्ति उपलब्ध है । वैशाली के लोगों के नेपाल और बर्मा चले जाने का शायद असर पड़ा हो। जब हम इस युग ( ७५०१२०० ई० ) के जैनधर्म के इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं, तब हमें पता चलता है कि इस समय इस धर्म को राजस्थान, गुजरात और दक्षिण में विशेष प्रश्रय मिला । जैनों मंदिर भी उसी तरफ स्थापित हुए । इसमें वैशाली पीछे पड़ गयी । जैन पुरानी बातें भूलते गये । वैशाली से उनका संबंध टूट सा गया । जिस समय वैशाली से जैनधर्म का संबंध टूट रहा था, उस समय वहाँ इश्लाम तेजी से अपने पैर बढ़ा रहा था । ११८० ई० में इमाम मुहम्मद फकीह ने मनेर (पटना जिल्ला ) को वहाँ के हिंदू सरदार से छीन लिया । उनके तीन लड़के थे, जिनमें मँझले ( इसमाईल ) ने तिरहुत में इस्लाम का झंडा ऊंचा किया । इन्हीं के वंश में पंद्रहवीं शताब्दी में शेख काजिन शुत्तारी ( १४३४ - १४९५ ई० ) हुए, जिनकी कन आज भी बसाढ़ में एक चौद्ध स्तूप के ऊपर बनी हुई है । मुगल काल में जैनमत में एक नवीन जाग्रति आयी दीखती है । सन् १६४१ ६० में शाहजहाँ के राजत्वकाल में आचार्य जिनराजसूरि के नेतृत्व में बिहार के श्वेतांबर संघ पावापुरी तीर्थ का जीर्णोद्धार कराया । पावापुरी ( मध्यमा पावा ) में भगवान् महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ था । जब जैन समाज को भगवान् महावीर की निर्वाण - भूमि का पता लग गया और वहां विशाल मंदिर एवं धर्मशालाएँ बन गयीं, तब उसे महावीर की जन्मभूमि के अन्वेषण की भी चिंता हुई । उसने यह सोचा कि जब भगवान् का निर्वाण पावापुरी में हुआ है, तब उनका पवित्र जन्म भी इसीके आसपास ही कहीं हुआ होगा | जैन जनता अच्छी तरह जानती थी कि वे० जैन ग्रंथों में भगवान् महावीर का जन्म क्षत्रियकुण्ड एवं दिगम्बर जैन ग्रन्थों में कुंडपुर या कुंडलपुर में लिखा है और वे लिच्छवियों के नाती थे । जन्मभूमि के अन्वेषणार्थ दो दल निकले । श्वेतांबर संघ को
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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