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________________ और उसका प्रसार भगवान महावीर की वास्तविक जन्मभूमि वैशाली। की राजधानी था तथा इसके समीप 'क्षत्रियकुंड ' नाम से प्रसिद्ध स्थान ही श्री महावीर की वास्तविक जन्मभूमि है। मैंने — भंजन'जी के लेख का उत्तर उसी वर्ष ५ जून के 'हुंकार' ( पटने से प्रकाशित हिंदी साप्ताहिक), १७ जून के 'योगी' ( पटना, हिंदी साप्ताहिक ) और २४ जुलाई के 'आर्यावर्त ' में छपवाया । एक दूसरे सज्जन ने १२ जून के 'आर्यावर्त ' में लिच्छवाड़ के पक्ष में एक लेख (चौबीसवें तीर्थकर महावीर की जन्म. भूमि' ) लिखा था जिसका उत्तर मेरे · योगी' एवं 'आर्यावत ' वाले लेखों में संमिलित कर लिया गया था। 'भंजन'जी को मेरे उत्तर से तसल्ली न हुई और उन्होंने २७ दिसंबर १९४९ के 'आर्यावर्त' में मेरे लेख का प्रतिवाद किया। प्रतिवाद में कोई नया 'वाइंट' न था, इसलिए मैंने उसका उत्तर नहीं दिया । वे लिच्छवाड़ के समीप के निवासी हैं और उन्हें डर होने लगा कि कहीं सचाई खुल गयी, तो उस स्थान का महत्त्व कम हो जाएगा । अतएव उन्होंने अहमदाबाद की अखिल भारतीय ओरिएंटल कान्फ्रेंस (१९५३) में भी एक लेख भेज डाला । श्री जगदीशचंद्र माथुर, आई० सी० एस० और मेरे द्वारा संपादित 'वैशाली-अभिनंदन -ग्रंथ' ( वैशाली, १९४८) के निकलने पर जिस में कई लेखकों द्वारा वैशाली को भगवान् महावीर का जन्मस्थान सिद्ध किया गया था, गुजरात में इस संबंध में बड़ी दिलचस्पी फैली और एक जैन मुनिजी ने गुजराती भाषा में 'क्षत्रिय. कुंड' नामक पुस्तक लिखी, जिस में उन्होंने लिच्छवाड के समीप 'क्षत्रियकुंड' नाम से आजकल प्रचलित स्थान को भगवान महावीर की जन्मभूमि बतलाया। गुजराती भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण मैं उत्तर न दे सका, किंतु प्रसिद्ध जैन मुनि श्री विजयेंद्रसूरिजी उसका उत्तर तैयार कर रहे हैं। सच पूछा जाए तो भगवान् महावीर की जन्मभूमि के विषय में यह भ्रांत धारणा उत्पन्न ही नहीं होती, क्योंकि लिच्छवियों की राजधानी वैशाली प्राचीन इतिहास में बहुत प्रसिद्ध थी। किंतु एक विशेष परिस्थिति से यह भ्रांत धारणा उत्पन्न हो गयी, जो अभी तक कुछ लोगों के हृदयों में घर किये हुए है । यह परिस्थिति यों हुई गुप्त-काल में वैशाली अत्यंत समृद्ध थी । यह वहाँ पायी गयी मुहरों, सम्राट् समुद्रगुप्त के लिच्छविदौहित्र' विरुद तथा चीनी यात्री फाहियान के भ्रमण-वृत्तांत से सिद्ध होता है। कालांतर में इसका पतन हो गया। संभवतः हूणों ने इसकी यह दशा की होगी, क्योंकि उनका नेता मिहिरकुल अपनेको पशुपति ( शिव ) का उपासक कहता था और उसने बौद्धों पर घोर अत्याचार किये थे। सातवीं शताब्दी में हुएनसांग ने जब इसे देखा,
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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