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________________ और उसका प्रसार जैनागमों में महत्त्वपूर्ण काल-गणना । ५६९ ३३ शून्यों तक की संख्या अंग्रेजी में प्रचलित है। उसके आगे बीच की अनेक संख्याओं को छोड़ कर प्रकाश-वर्ष (Light-year ) संख्या आती है। और फिर उपनामों के साथ वह बढ़ती जाती है । ३३ शून्यों तक की संख्याओं के नाम इस प्रकार है: ( १ ) Unit इकाई = १ ( २ ) Ten दहाई = १० ( ३ ) Hundred सैंकड़ो = १०० ( ४ ) Thousand हजार = १००० ( ५ ) Tens of thousands = १०००० ( ६ ) Hundreds of thousands = १ और ५ शून्य = १ और ६ शून्य ( ७ ) Millions ( ८ ) Tens of millions = १ और ७ शून्य ( ९ ) Hundreds of millions = ( ११ ) Tens of billions = १ और १० शून्य ( १२ ) Hundreds of billions = १ और ११ शून्य ( १३ ) Trillions १ और १२ शून्य ( १४ ) Quadrillions = १ और १५ शून्य ( १५ ) Quintillions = १ और १८ शून्य ( १६ ) Sextillions ( १७ ) Septillions ( १८ ) Octillions ( १९ ) Nomillions ( २० ) Decillions = १ और २१ शून्य = १ और २४ शून्य = १ और २७ शून्य = १ और ३० शून्य = १ और ३३ शून्य = १ और ८ शून्य = १ और ९ शून्य ( १० ) Billions प्रकाशवर्ष - १ सेकण्ड में प्रकाश की गति १ लाख ८६ हजार मील के हिसाब से - ३६०० × २४ × ३६५ × १८६०००=Light-year ( प्रकाश वर्ष ) । जैनागमों में समय या कालगणना लाख से आगे चौरासी (८४) लाख से गुणित मिलती है और उनमें आगे की संख्या के उपरोक्त नामों से प्रायः सर्वथा भिन्न हैं । पद्म, नलिन, अयुत, प्रयुत, आदि थोड़े नाम उपर्युक्त ग्रन्थों में भी आये हैं। पर उनकी संख्या की गणना करने से वह उनसे बहुत ही अधिक जा पहुँचती है, अतः उन नामों का साम्य वास्तव में संख्या का साम्य नहीं है। मालूम होता है कि वर्तमान में जो संख्या की दस गुणित प्रणाली प्रसिद्ध है उससे पहले भारत में एक ऐसी भी परम्परा रही है जो चौरासी (८४) लाख की संख्या से गुणित होती थी । इस प्रणाली के संख्यानामों का उल्लेख सौभाग्य से जैनागमों में बच पाया है । अन्यत्र पीछेवाली परम्परा प्रसिद्ध होने पर प्राचीन परम्परा भुलाई जा चुकी प्रतीत होती है । आगे दी जानेवाली जैन कालगणना में से त्रुटितांग संख्या का तो प्रयोग कहीं कहीं जैन ग्रन्थों में मिलता है । पूर्वतक की संख्या तो प्रसिद्ध ही है । भगवान् ऋषभदेव आदि की आयु का परिमाण चौरासी लाख पूर्व का बतलाया गया है, जिसकी संख्या का नाम त्रुटितांग होता है । इसके आगे की संख्याओं के नामों का प्रयोग मेरे देखने में नहीं आया। उसके बाद संख्यात्, असंख्यात्, अनन्त, पल्योपम और साग ७२
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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