SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 652
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और उसका प्रसार राजस्थान में जैनधर्म का ऐतिहासिक महत्त्व । बहुत संभव है कि सूर्यसिंह ने सुतनिसिंह के हार जाने पर उसको प्राप्त किया हो । १६२६ ई. में जयमल्ल ने गजसिंह के समय जालोर के आदिनाथ, पार्श्वनाथ तथा महावीर के मंदिरों में मूर्तियों की स्थापना की । इसी राजा के राज्य में १६२९ में पाली तथा मेड़ता में भी प्रतिष्ठा हुई। १७३७ ई. में मारोठ में महाराजा अभयसिंह के राज्य में प्रतिष्ठा महोत्सव मनाया गया । इस समय मारोठ में बखतसिंह तथा वैरीशाल अभयसिंह के सामंत के रूप में शासन करते थे। इस समय मारोठ स्वतंत्र राज्य नहीं था । यहां के दिवान रामसिंहने साहों का मंदिर बनाया तथा उसमें अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा की। १७६७ ई. में यहां के मेड़तिया राजपूत हुकमसिंह के राज्य में रथयात्रा का उत्सव ठाठबाट से मनाया गया। वीकानेर राज्य में जैनधर्म-बीकाजी और उसके उत्तराधिकारी जैनधर्म और जैन साधुओं के प्रति श्रद्धा रखते थे । महाराजा रायसिंह तो जिनचन्द्रसूरि का पक्का भक्त हो गया था । कर्मचन्द्र की प्रार्थना पर उसने तुरासान से लूटी हुई सिरोही (1) की १०५० जैन मूर्तियां अकवर से प्राप्त करके नष्ट होने से बचाई। लाहोर में जिनचन्द्रसूरि का युगप्रधान-पदोत्सव मनाया जिसमें कर्मचन्द्र महाराजा रायसिंह, कुंवर दलपतसिंह के साथ सामिल हुए और सूरिजी को धार्मिक ग्रंथ भेंट में दिये । महाराजा रायसिंह और जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर जिनसिंहसूरि के भी अच्छे संम्बध थे । उसके राज्य में हम्मीर ने अपने परिवार के साथ १६०५ ई. में नेमिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा की। कर्णसिंह १६३१ ई. में राजा हुआ । इसने जैन उपासरा बनवाने के लिए भूमि दी । महाराजा अनूपसिंह के जिनचन्द्र और तथा जैन कवि धर्मवर्धन के साथ अच्छे संबन्ध थे। धर्मवर्धन ने तो महाराजा अनूपसिंह के राज्याभिषेक के अवसर पर कविता मी लिखी थी। जिनचन्द्रसूरि और महाराजा अनूपसिंह, जोरावरसिंह और सुजानसिंह के बीच काफी पत्र. व्यवहार होता रहता था। महाराजा सूरतसिंह १७६५ में राजा हुआ। वह ज्ञानसागर को नारायण का अवतार मानता था। उसने जैन उपासरों के निर्माण के लिए भूमि दी । वह दादा साहिब के प्रति आदर रखता था तथा उनकी पूजा के खर्चे के लिए १५० बीघा भूमि दी। जयपुर राज्य में जैनधर्म:-जयपुर राज्य के कच्छावा राजों की संरक्षता में भी जैनधर्म ने अधिक उन्नति की । यहां करीव ५० जैन दीवान हुए हैं। अनेक शास्त्रों की प्रतियां लिखी गईं, मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई तथा नवीन मंदिर बनाये गये। इस राज्य के छोटे ठिकानों में भी जागीरदारों की प्रेरणा से जैनधर्म का प्रभाव बढ़ा।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy