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________________ और उसका प्रसार राजस्थान में जैनधर्म का ऐतिहासिक महत्त्व | मुंगस्थल के १३६९ के शिलालेख से पता चलता है कि महावीरस्वामी स्वयं अर्बुदभूमि पधारे थे तथा महावीरस्वामी के जीवन के ३७ वें वर्ष में केशीश्रमणने यहां पर एक मूर्ति की प्रतिष्ठा की। ये प्रमाण बहुत पीछे के हैं । इस कारण इनको प्रमाण में नहीं लिया जा सकता । राजस्थान में जैनधर्म के प्रचलित होने का सब से ठोस प्रमाण बड़ली का शिलालेख है । यह शिलालेख वीर निर्वाण संवत ८४ का है तथा इसमें माझमिका का उल्लेख है । यह स्थान चित्तौड़ का माध्यमिका है जिसका उल्लेख पातंजलीने अपने महाभाष्य में किया है । वर्तमान समय में यह स्थान नगरी कहलाता है । जैन श्रमण संघ की माध्यमिका शाखा इस स्थान से प्रसिद्ध हुई । सुहस्थि के शिष्य प्रिय ग्रंथने इस की स्थापना तीसरी शताब्दी पूर्व की थी । तीसरी शताब्दी पूर्व का यहां पर एक शिलालेख भी मिला है जिसका अर्थ है कि ' सर्वभूतों के निमित्त ' संभव है कि यह जैनियों का शिलालेख हो तथा इस बात को सिद्ध करता है कि जैनधर्म इस समय राजस्थान में प्रचलित था । ५४९ मौर्यो के समय जैनधर्मः --- मौर्य राजाओं की छत्रछाया में भी जैनधर्म उन्नति करता रहा । साहित्य तथा शिलालेखादि के प्रमाणों से अब यह स्पष्ट हो गया है कि चन्द्रगुप्त जैन सम्राट् था । उसके साम्राज्य में राजस्थान का हिस्सा भी सामिल था; क्योंकि उनके पौत्र का शिलालेख बैराठ में मिला है । यह सब राज्य चन्द्रगुप्त द्वारा ही बढ़या गया था; क्योंकि अशोकने तो केवल एक कलिंग की ही विजय की थी । उसने अनेक मंदिरों की प्रतिष्ठा करवाई | सत्रहवीं शताब्दी के कवि सुन्दर गणी के अनुसार उसने धंधाणी के मंदिर की पार्श्वनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई। यह प्रमाण बहुत पीछे का होने के कारण इसको प्रमाण में नहीं लिया जा सकता । चन्द्रगुप्त का पौत्र अशोक बौद्धधर्म का अनुयायी होने पर भी जैनधर्म को चाहता था । उसने आजीविक साधुओं के रहने के लिये बारबरा की पहाड़ियों में गुफायें बनवाई । उसके शिलालेखों में निर्ग्रथों तथा आजीविकों के लिए दान का उल्लेख आता है । इसके पश्चात् इसका पौत्र सम्प्रति राजा बना। जिस प्रकार से अशोक ने बौद्धधर्म के प्रचार के लिए प्रयत्न किया, उसी प्रकार से सम्प्रति ने जैनधर्म के फैलाने में कोई प्रयत्न शेष नहीं छोड़ा। जैन इतिहास में संप्रति जैन अशोक के नामसे प्रसिद्ध है । जैन परम्परा के अनुसार उसने राजस्थान, गुजरात तथा मालवा में अनेक मंदिरों तथा मूर्तियों का निर्माण कराया और ३. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा जैन लेख संदोह, लेखांक ४८ । ४. उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ. ३५८ । ५. भगवान पार्श्वनाम की परंपरा का इतिहास, पृ. २७३ ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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