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________________ और उसका प्रसार राजपूताना में जैनधर्म । ॐ नमो नारायणाय के सदृश ही इस जैनमंत्र की भी विशेषता थी। सम्भवतः यह वैष्णव मत का प्रभाव ही था कि जैन लेखों में इस प्रकार के मंगलाचरण का प्रयोग होने लगा था। इस मंत्र के पश्चात् पहला पद भी तीर्थंकर के प्रार्थना निमित्त लिखा जाता था। परमार लेख में निम्न पंक्तियों में प्रार्थना मिलती है स जयतु जिनभानुः भव्यराजीव राजी, जनितवरविकाशो दत्तलोकप्रकाशः । परसमयतमोमिने स्थितं यत्पुरस्तात् क्षणमपि चयसासद्वादि खद्योतकैश्च ॥ इस पश्चात् ऋषभनाथ के विशाल मंदिर के निर्माण का वर्णन है (तेनाकारितं मनोहरं जिनगृहं भूमेरिदं भूषणम् ) । प्रशस्ति के अंत में राजपूताना के जैनियों द्वारा ऋषभनाथ की मूर्तिकी प्रतिष्ठा का उल्लेख सुन्दर शब्दों में किया गया है-[ श्रीवृषभनाथनाम्नः प्रतिष्ठितं भूषणेन बिम्ब मिदं ए. इ० भा० २१, पृ० ५४ ] ___ इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि इसवीं से १२ वीं सदी तक राजपूताना में जैनधर्म का विशेष रूप से प्रसार हो गया था। साधारण जनता तथा शासकों द्वारा उपासना तथा प्रोत्साहन का उल्लेख प्रशस्तियों में स्पष्ट रूप से पाया जाता है। इतना ही नहीं, हिन्दू. मत के माननेवाले भी जैनमंदिर को दान दिया करते थे । जैनविहार तथा मंदिरनिर्माण के अनेक उदाहरण पाये जाते हैं (ए. इ. भा० ४०, पृ० १४५ तथा ए. इ० भा० २०, पृ० ६१)। चाहमान, परमार तथा चन्देल शासकगण जैनधर्म से प्रेम रखते थे तथा सहिष्णु थे । खजुराहों के जैनमंदिर तथा अनगिनत तीर्थंकरों की प्रतिमायें इसका ज्वलन्त उदाहरण हैं तथा आज भी सभी को आकर्षित करती ही हैं। आबू के देलवाड़ा समूह के जैन मंदिर जैनमत के प्रसार के जीवित उदाहरण हैं। कलात्मक दृष्टि से उनका विश्लेषण करना हमारा ध्येय नहीं है; परन्तु जैनमत के प्रचार की और संकेत करना है । राजपूताना, मध्यभारत तथा मध्यदेश आदि भूभाग ब्राह्मण धर्म तथा संस्कृति के प्रसिद्ध क्षेत्र माने गये हैं जहां वैष्णव और शैव मत की प्रधानता थी । तो भी उस परिस्थिति में हम जैनमत को फूलते तथा फलते पाते हैं। हां, उस पर ब्राह्मण मत का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है । पूजा-पाठ में पौराणिक देवताओं की तरह चंदन, धूप, दीप, नैवेद्य का प्रयोग होने लगा । उस भाग से जितनी जैन प्रतिमायें मिली हैं उनकी बनावट हिन्दू देवताओं के सदृश है तथा शास्त्रीय नियम से सम्बद्ध है । इसके विवेचन में न जाकर यह कहना आवश्यक है कि राजपूताना जैनमत का ऐसा गढ़ बन गया कि विधर्मियों के आक्रमण से भी गिराया न जा सका । आज भी वह भाग जैनमत का प्रसिद्ध भूभाग है । १-२ जब तक इस तथ्य की शोध-खोज न की जाप, एक पर दूसरे का प्रभाव, अपने ऊपर रहे हुए मात्र प्रभाव के कारण लिख देना पुरातत्त्वदृष्टि से ठीक नहीं। -संपा. दौलतसिंह लोढ़ा.
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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