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और उसका प्रसार प्राचीन जैन साहित्य में मुद्रा संबंधी तथ्य । ५४३ ( money-bag ) का भी उल्लेख है । यह 'दम्म ' ( damma ) अथवा 'द्रमक' ( dram. aka ) अन्यान्य लेखकों के ' द्रम्म ' (dramma ) का ही परिवर्तित रूप है । इस पुस्तक में हमें एक और नाम मिलता है और यह है ' पायंक' ( Payanka ) अथवा 'पादांक' ( Pidinka)। डा० अग्रवाल इसे इन्डो-सस्तनियन ( Indo-Sassanian ) मुद्रा मानते है और 'पद' अथवा 'पाद ' का अर्थ ' पदचिह्न ' से करते हैं । यहाँ पर यह निर्देश कर देना उचित होगा कि हरिभद्रसूरिकी आवश्यकवृत्ति' के छपे हुए संस्करण में इसी प्रसंग में ' पायंक' शब्द मिलता है न कि ' पयंक' अर्थात् ' पादांक' न कि ' पदांक'।
'व्यवहार भाष्य ' के कालका कुछ पता नहीं मिलता, पर इसको सातवीं शताब्दी अथवा उसके कुछ पूर्व की कृति माना जा सकता है । इसमें जैसा कि डा० जैन कहते हैं, ' पणिक ' ( Pannika ) नामक एक दूसरी ही मुद्रा का उल्लेख मिलता है जिसको डा० अग्रवाल ने पहिचान कर ' पर्णिक' ( Parnik ) नामक मुद्रा से एक्य स्थापित किया है जो कि सस्सनियों की एक जाति ' पर्णि' ( Parnis ) की मुद्रा थी जिनकी भाषा 'पहल्वि' (Pahlvi) थी और जिनके साम्राज्य के प्रतिष्ठाता अरसेक्स" (Arasecs)थे।
हरिभद्रसूरि अपने ग्रंथों में · दीनारों · सुवों' : रूवगों' और ' पायकों' का उल्लेख करते हैं। उन ग्रंथों में वर्णित मुद्रा संबंधी प्रमाणों से प्रकट होता है कि इनका काल
और जिनदास का काल एक ही रहा होगा। इस तथ्य से मेरे अन्यत्र व्यक्त किए गए विचारों को सहारा मिलता है जिनमें मैंने अन्यान्य प्रमाणों के आधार पर यह बतलाया है कि यह महान जैन अध्यात्मवादी, कवि, दार्शनिक और नैयायिक, जिनदास का अल्पवयस्क (Junior ) समकालीन था । हरिभद्र की आखिरी सीमा C. 700 A. D होनी चाहिए।
हेमचन्द्र ' पणों' के बारे में कुछ उपयोगी सूचना देते हैं । (उनका काल 1150 A. D.) वे कहते हैं कि एक ' कार्षापण' सोलह पणों के बराबर है । यथा:-"कापणः कापणम्-मानविशेषः पणषोडशकम् , शाकटायनस्य । प्रज्ञाद्यणि कार्षापणः कार्षापणमित्यपि कारण उनका 'मनि-बेग' (Moneybag) 'नकुलक' बन जाता है। आवश्यकचूर्णि' पृ. ५५०. ५५३, ५५७ में 'रुवग' के लिए, 'दीनार' के लिए पृ. ५६५, 'पयंक' के लिए पृ. ५६२ और 'नौलओ दमेन थवितो' के लिए पृ० ५५० देखिए ।
२८. JNSI. Vol. XII, pt. 2. 2001
२९. डा. जे. सी. जैन op. cit. p. 120। और डा. वी० एस० अग्रवाल, अध्यक्षीय भाषण, JNSI. Vol. XII pt. 2. P. 200.
३०. — समरेच्चकह ' ( Samaraicekaha) पृ. १७१, ७४६, २४४, ५६१ । 'आवश्यकपत्ति' पृ. ४२३, ४३२ ।