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और उसका प्रसार प्राचीन जैन साहित्य में मुद्रा संबंधी तथ्य । प्रकट करने के लिए प्रेरित किया है । साधारण रूप से इसे विक्रम संवत् ५३० का मान लेना श्रेयस्कर होगा।
'बृहत्-कल्प-भाष्य ' ( Brhat-Kalpa-Bhashya ) प्राचीन भारतीय संस्कृति पर प्रकाश डालनेवाला एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। जिसका निर्माण संभवतः छठी शताब्दि (ईश्वी) में किया गया । उसके १९५९ वें पद्य में लिखा है:-" कवडुगमादी तंबे, रूप्पे पीते तहेव केवडिए ॥” इस पर टीका करते हुए क्षेमकीर्ति (c. 1332 V.S.) लिखते हैं:"कदर्पकादयो मार्गयित्वा तस्य दीयन्ते । ताम्रमयं वा नाणकं यद् व्यवह्रियते यथा दक्षिणापथे काकिणी । रूपमयं वा नाणकं भवति यथा भिल्लमाले द्रम्मः । पीतं नाम सुवर्ण तन्मयं वा नाणकं भवति, यथा पूर्वदेशे दीनारः । 'केवडिको' नाम यथा तत्रैव पूर्वदेशे केतराभिधानो नाणकविशेषः।" बृहत्-कल्प-भाष्य, Vol. 11, पृ. ५७३. ।
उपरोक्त ' भाष्य गाथा' पर टीका करते समय टीकाकार के सम्मुख इसी पर की एक प्राचीन चूर्णि ( curni ) अवश्य रही होगी और इसीलिए उनके प्रमाण सातवीं शताब्दि A. D. की परंपराओं से बाद की किसी परंपरा पर आधारित नहीं हो सकते । उपरोक्त उद्धरण से प्रकट है कि 'काकिणी' दक्षिणा पथ के एक तंबे के सिक्के को कहा जाता था। 'द्रम्म' एक चांदी की मुद्रा का नाम था जो भिल्लमाल में प्रचलित थी" (माउन्ट आबू के उत्तर पश्चिम, अर्थात् मारवाड में ) और ' स्वर्ण दीनार' का व्यवहार भारत के पूर्वी भागों में हुआ करता था। 'केवडिक ' जो कि केतर ' के नाम से भी प्रसिद्ध है पूर्व देश की एक प्रचलित मुद्रा थी।
'बृहत्-कल्प-भाध्य ' के निम्नोक्त पदों से कई विशिष्ट मुद्राओं के विनिमय दरों का संकेत मिलता है:
"दो सामरगा दीविच्चगा तु सो उत्तरापथे एक्को ।
दो उत्तरापहा पुण, पाडलिपुत्तो हवति एक्को ।। ३२९१ ॥ १७. 'काकिणी ' के लिए डा. अग्रवाल, op. cit.. P. 202. को भी देखीये, जहा कि उन्होंने 'काकिनी' और बोदी ( Bodi ) के बारे में चर्चा की है। और भी देखिये-JNSI. Vol. VIII pt. 2, pp. 138 ff. डंडीने भी अपने 'दशकुमार चरित' में इस मुद्रा का उल्लेख किया है।
१८. डा. जैनने जैन 'निशीथचूणि' का उल्लेख किया है ( Mss. में ) जिसमें कहा गया है,-"रूपमयं वा नाणकं भवति यथा मिल्लमाले द्रम्मः ।" और भी देखिये- डा. अग्रवाल, op. cit. P. 201.
१९. इस बात पर डा. अग्रवाल ( op. cit. P. 199 ) से सहमत हो सकना कठिन प्रतीत होता है कि 'केतर' केतर कुशाणों की मुद्रा थी क्यों कि उनका अधिकार ( शासन) पंजाब पर था, न कि पूर्वी भारत पर ।