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________________ ५३८ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ जैनधर्म की प्राचीनता संघदास वाचक की 'वसुदेवहिन्डि' (Vasudevahindi) ईशा के पश्चात् तीसरी-चौथी शताब्दी के भारत के सांस्कृतिक तत्वों के ज्ञान की एक अमूल्य खान है। यह ग्रंथ गुणाढ्य की 'बृहत्-कथा' ( Brhat Katha ) पर आधारित है और सामान्यरूप से इसका काल C. 400 A. D. से कुछ पूर्व स्थापित किया जा सकता है। इस में वर्णित एक कथा के अनुसार एक लकड़हारा संपूर्ण दिन के कठिन परिश्रम के पश्चात् एक एक 'काहावण' ( Kahavana) प्राप्त कर सका जिसका तात्पर्य संभवत: एक तांबे के 'कार्षापण' से ही है । एक दूसरी जगह एक तित्तिरि पक्षी का एक कहावण' में बिकने का उल्लेख है जिससे भी इस तांबे के सिक्के का ही निर्देश मिलता है।" इस ग्रंथ में कूड-दीणार' (Kida-dinara ) अर्थात् कृत्रिम दीनारों का भी उल्लेख है।" एक दूसरे प्रसंग में एक व्यक्ति से रतिसेना नामक वैश्या को १०८ 'दीनार' देने के लिए कहा गया है। ___ कहा जाता है कि मरुभूमि में से गुज़र रहे एक काफिले में लेनदेन (Vyavahara= व्यवहार ) की सुगमता के लिए अपनी एक गाड़ी पर 'पणों' ( Panas) से भरा एक बस्ता लाद रखा था । संयोग से बस्ता लुढ़क गया और सारे 'पण' भूमि पर बिखर गए। व्यापारी जब उन्हें बहोरने के प्रयत्न में लगा तो उसके पथप्रदर्शकोंने एक कहावत के माध्यम से उसे चेतावनी दी । जिसका तात्पर्य था कि सामान्य 'कागणी' (Kagand, Sk. Kokini=काकिणी ) के लिए लाखों की जोखम मत उठाइये।" उपरोक्त कथन से संकेत मिलता है कि 'पण' एवं ' काकिणी' दोनों ही अल्प मूल्य की मुद्राएं थीं। विमलसूरि के 'पउमचरियम् ' (Paumcariyam) में भी कहा गया है कि जो व्यक्ति त्याग, तप एवं आत्मशासन को तिलांजली देकर सुख एवं इन्द्रियों के वशीभूत हो जाते हैं वे उन व्यक्तियों के सदृश हैं जो एक तुच्छ कागणी के लिए बहुमूल्य हीरे से हाथ धो बैठते हैं।" इस ग्रंथ में · दीनारों' का भी उल्लेख है और झूठे तोल व मापों के प्रचलन एवं विनिमय मुद्राओं के संबंध में भी वर्णन मिलता है। इस ग्रंथ का निर्माणकाल इसी के एक अन्तिम पद के अनुसार, महावीर के निर्वाण के ५३० वर्ष पश्चात् कहा गया है परन्तु इसके आलोचनात्मक अध्ययन ने विद्वानों को उक्त कथन पर शंकायें १०. मुनि पुन्यविजयजीद्वारा दो वोल्यूमों में संपादित, भावनगर । ११. Op. Cit., Vol. 11, p. 268 और Vol. 1, p. 57.। १२. Vol. 1, p. 42. १३. Vol. 11, p. 289. १४. Vol. 1, p. 15. १५. पोमचरियम' ११८, १०७, पृ० ३३५। १६. Ibid., 2. 19 । ( Ibid=उसी ग्रंथ में)
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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