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________________ ५३६ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक ग्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता कुछ " 1 3 भी उसे स्वीकार करने लगे थे । सन् ४४७ A. D. के बाइप्राम ( Baigram ) तानपात्रों में, जो कि कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में प्रेषित किए गए थे, बंजर भूमियों का छः ' दीनारों ' ( dinaras ) और बगीचे लगी हुई भूमियों का आठ 'रूपकों ' ( rupakas) में खरीदका उल्लेख है । ये 'दीनार ' ( dinsras ) या तो रोम के 'देनारियस' ( denarius ) अथवा उसी माप के भारतीय सोने के सिक्के रहे होंगे । हमारी स्वदेशीय स्वर्णमुद्राएं जिनको 'सुवर्ण' ( Suvarna ) कहा जाता था, तोल में १६ मासा अथवा ८० रत्ति (लगभग १४४ ग्रेन) की हुआ करती थीं । परन्तु इस परिमाण की कोई पुरानी मुद्रा हमें प्राप्त नहीं हुई है । " कुशाण एवं प्रारम्भिक गुप्त महाराजाओं के सोने के सिक्के ‘ अउरेयुओं ’ ( aureus ) के माप से समानता प्रकट करते हैं । उनका वजन लगभग १२० ग्रेन का था । प्राचीन अभिलेखों से भी यह विदित होता है कि ये स्वर्णमुद्राएं हमारे स्वदेशीय नाम 'सुवर्ण' के द्वारा संबोधित न की जाकर रोम से प्राप्त ' दीनार' नाम से संबोधित की जाती थी । बाद में गुप्त सम्राटों ने इन मुद्राओं का वजन शनैः शनैः बढ़ा कर 'सुवर्ण' के बराबर करने का प्रयत्न किया । ११४ " दूसरे आगमों के अलावा ' उत्तराध्ययन' २०.४२, में एक कृत्रिम ( Kuda= कूड) ' कहावण' (Kahavana) अथवा 'कार्षापण ' ( Karshapana ) मुद्रा का उल्लेख किया गया है । साथ ही 'सूत्रकृतांग - सूत्र' (Sutrakrtanga-sūtra ) २. २, और ' उत्तराध्ययन ८, १७, में ‘मास ' ( Masa) 'अद्धमास' (Addhamasa ) और ' रुवग' (Ruvaga) का संकेत मिलता है | उत्तराध्ययन में ' सुवण्णमासय' ( Suvannamasaya ) का भी 1 उल्लेख है । अतः जिस प्रकार से सोने, चांदी एवं तांबे 'कार्षापणों' का प्रचलन था उसी २. Ep. Ind., Vol. XXI, pp. 81-2. बहुत संभव है कि व्यापारिक लेनदेन रोम के ' देनारियस' के माध्यम से ही किए जाते रहे हों एवं उसी तोल व मान ( Standard ) की गुप्त - कालीन मुद्राओं को 'दीनार' न कहा जा कर किसी अन्य नाम से अलतेकर के विचार भी जिनका उद्धरण यहाँ दिया गया है- काफी सार भी ' सुवर्णों' के विषय में निर्देश करनेवाले नासिक के शिलालेख १० ( inser. 10 ) में 'नहापना' के सुवर्णों का उल्लेख मिलता है जो १४४ मेन के न होकर १२० ग्रेन के हैं । गुप्त काल की मुद्राओं का नाम संभवत: 'सुवर्ण' ही रहा हो, यद्यपि १२० ग्रेन के ही, और जिनको कि बाद में बढा कर १४४ ग्रेन का कर दिया गया हो । CF. Dr. Altekar in JNSI, II, pp. 4 ff. 3-Manu. VIII, 34-36. -Dr. Altekar, A. S., 'Relative Prices of Metals and coins in Ancient India' JNSI., Vol. II. P. 2, ५. 'उदयजातक' में भी निर्देश मिलता है। JNSI Vol. XII, pt., 2, p. 194 पुकारा जाता रहा हो, यद्यपि डा. संभाव्य प्रतीत होते हैं । उनके अनु
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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