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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक - प्रथ जैनधर्म की प्राचीनता दया धर्म सब धर्मों का मूल है। जहाँ दया नहीं वहां धर्म नहीं । जो मनुष्य दूसरों पर क्रोध प्रकट न करे, अन्यकी निन्दा न करे और अन्य को सताये नहीं तो वह शीघ्रातिशीघ्र उन्नति के शिखर पर पहुंच सकता है । भक्तनायक गोस्वामी तुलसीदासने भी कहा है कि — - ५३४ 46 दया धर्म को सूल है, पाप मूल अभिमान । तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्रान ॥ ?? शूरता के लिए तीर्थंकर महावीर प्रख्यात हैं कि बाल्यावस्था में उन्होंने एक भयंकर मणिधारी विषधर सर्प को अपने हाथों से पकड़ कर धीरेसे दूर फेंक दिया था । उपसंहारः -- इसप्रकार जैनधर्म की प्राचीनता और उसकी विशेषताओं पर विचार करने से पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म अत्यन्त प्राचीन धर्म है और सर्व गुणों की खान है। जैनधर्म जीव और शरीर को भिन्न मानता है और उसका सच्चा स्वरूप हमें समझाता भी है । अगर कोई व्यक्ति अपना व्यवहार उच्च आदर्शमय बनाना चाहें तो वह जैनधर्म के अवलम्ब से अपना चरित्र या व्यवहार आदर्शमय बना सकता है । क्योंकि चरित्र ही सब कुछ है । किसी विद्वानने कहा भी है। Wealth is gone-nothing is gone, Health is gone-something is gone; But when character is gone-all is gone. अर्थात् जब धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया; परन्तु अगर चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया | I इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म हमें चरित्र निर्माण की शिक्षा देता है । किस धर्म में पंचमहाव्रतसहित संयम पालने का उपदेश दिया है ? किस धर्म में वेश्या के घर रहकर वैश्या को समझाने का प्रयत्न किया है ? किस धर्म में अनेक राजारानियों को संसार को असारतापूर्वक मालूम होने पर दीक्षा लेते दिखाया हैं । इन सबका केवल एक उत्तर है, वह है जैनधर्म ने ही | आज भी जैनधर्म पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र की भाँति ताराओं को प्रकाशमान कर अपनी दिव्यता, सत्ता और विशेषता के प्रकाश से दुनियाँ को आकर्षित कर रहा है । ऐसा उत्कृष्ट है जैनधर्म ! ऐसा प्राचीन है जैनधर्म ! ! विशेषताएं हैं जैनधर्म की ! ! !
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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