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________________ ५२० भीमद् विजयराजेन्द्रसरि-स्मारक-ग्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता व्रात्य धर्म वेदों में जैन धर्म ( पञ्चव्रत ) (१) “ मा हिंस्यात् सर्वाणि भूतानि ( ऋग्वेद )-किसी जीव की हिंसा मत करो. मा जीवेभ्यः प्रमदः ( अथर्वेद-८-१-७ )-" जीवों के प्रति प्रमादी मत बनो." " ऋतस्य पन्था प्रेत " ( यजुर्वेद-७-६५ )-" सत्य के पथ पर चलो." " अहमनृतात्सत्यमुपैमि " ( यजु० १-५ )-मैं असत्य से सत्य को ग्रहण करता हूँ. " मा कृधः कस्य स्विदनम् ” (यजु० ४०-१)-किसी की सम्पत्ति का लालच मत करो. (४) " न स्त्रियमुपेयात् " ( तैत्तिरीय संहिता २-५-५-३२ )-स्त्री का सेवन मत करो. (५) सुगा ऋतस्य पंथा ( ऋग्वेद ८-३-१३ )-धर्म का मार्ग ही सच्चा मार्ग है. (६) सुतस्य नावः सुकृतमपीपरन् ( ऋग्वेद ८-७३-१)-सत्य की नाव ही धर्मात्मा को पार लगाती है। (७) तपस्या के महत्व को बताते हुए वेद में लिखा है "अजो मांगस्तपसा तं तपस्व"-(ऋग्वेद १-१६-४ )-" तपस्या से आत्मा का साक्षात्कार करो।" यज्ञ का विरोध यज्ञ को सर्वप्रधान धर्म माना गया है । और १. स्वर्ग कामो यजेत. २. पुत्र कामो यजेत. ३. वृष्टि कामो यजेत. आदि आदि विधानों की भरमार की गई है । उसी वेद में यज्ञ का विरोध भी खूब किया गया है । ज्ञानकाण्ड में यज्ञों की निष्फलता और मुक्ति-प्राप्ति में अनावश्यक बताते हुए लिखा है कि: " न कर्मणा न प्रजया न धनेन त्यागेनैकममृतमानशुः । परेणनाकं निहितं गुहायां विभ्राजते यद् यतयो विशान्ति ॥" कैवल्य श्रुति (ऋग्वेद) अर्थात् ब्राह्मणो ! यात्रिको ! संसार में कर्म-यज्ञ से, संतान से और धन से मोक्ष कभी नहीं मिल सकता । मोक्ष तो उन यतियों व्रात्यों को प्राप्त होता है जो आत्म-तत्व को जानते हैं और त्याग का मार्ग अपनाते हैं। इसी मंत्र से व्रात्य यतियों का प्रभाव कितना बढ़ गया था और वेदने अपने कर्मकाण्ड का, मुक्ति के लिये अपनी असमर्थता को किस प्रकार स्वीकार कर लिया था, इसका
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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