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________________ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रय जैनधर्म की प्राचीनता सकता था और अहिंसा की स्थापना करना चाहता था । इसी लिये पशुवध रोकने के कारण याज्ञिक उन्हें विघ्नकर्ता, अनार्य, असुर, म्लेच्छ कहा करते थे । व्रात्य भौतिक देवताओं को न मानने से " अदेवयुः " यज्ञविरोधी होने से अयज्वन, अन्यव्रत, अकर्मन् आदि नामों से पुकारे जाते थे। व्रात्य और यज्ञसमर्थक विचारों का प्रभाव आर्य जाति की एक टुकड़ी पर ही नहीं पड़ा था, अपितु देश के देश बंटे थे । आर्यावर्त अथवा भारत की समूची जनता इन दोनों आन्दोलनों में बट गई थी और यहां तक कि सैद्धान्तिक और वैचारिक विभिन्नता प्रादेशिक विभिन्नता का भी कारण बनी। शतपथ ब्राह्मण, वाजसनेयी संहिता में आर्य और व्रात्यों का सीमा निर्धारण भी बतलाया हुवा है । ब्रात्यों और आयों (आर्य-इतिहास- युग में आये हुये याज्ञिक आर्य लोग) का प्रादेशिक प्रभाव काबुल, चिनाब, सतलज, गोमती, झेलम, व्यास, गंगा और यमुना तक व्याप्त था अर्थात् अफगानिस्तान से लेकर गंगा की घाटी तक आर्यों का निवासस्थान था । अथर्ववेद तथा ऋग्वेद के मन्त्रों के अनुसार व्रात्य पूर्व और दक्षिण में निवास करते थे। वाजसनेयी संहिता और स्मृति के अनुसार ६ पूर्वी और एक दक्षिण निकट स्थित देशों में तीर्थयात्रा करने का निषेध किया है। अंगवंगकलिंगेषु सौराष्ट्रमागधेषु च । तीर्थयात्रा विना गच्छेत् पुनः संस्कारमर्हति ॥ कुरु पाञ्चाल में एक छत्र ब्राह्मणों का (यज्ञसमर्थक) शासन था और अंग, बंग आदि में व्रात्यर्मियों का। अतः व्रात्यों की ओर जाकर कभी धर्मविमुख न हो जाय इसी लिये तीर्थयात्रा के सिवाय जाने पर पुनः संस्कार का विधान किया गया । व्रात्यों और याज्ञिकों की अहिंसाविषयक मान्यता को लेकर दोनों विचारधाराओं के अनुयायियों में कितनी बार संघर्ष, युद्ध और विवाद उठे हैं । ऋग्वेद में कीकट देश ( वात्यों का प्रान्त ) की कड़ी भर्त्सना की है। अन्यत्र व्रात्यों के विषय में स्तुतिपरक मन्त्र भी उपलब्ध होते हैं। जिससे हमें व्रात्यों और याज्ञिकों को अत्यन्त प्राचीन मानने में कहीं भी संदेह का स्थान नहीं दीखता है। पुरातत्व के आधार पर आर्य और व्रात्यः व्रात्यों और ब्राह्मणों का विकासक्रम जानने के लिये हमें अतीत के उस पाषाणयुग । १ कीकटेषु० ऋग्वेद ३, ५३, १४ प्रियंधाय भवति प्राच्यां दिशि, अथर्व १५ ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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