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________________ और उसका प्रसार जैनधर्म की ऐतिहासिक खोज । ५१७ वह व्रात्य आत्मा है । आत्मा का स्वरूप है । आत्मसाक्षात् द्रष्टा महाव्रत के पालक व्रात्य के लिये नमस्कार हो ( " नमो व्रात्याय ")। __ यह सब उल्लेख अथर्ववेद के १५ वे काण्ड में से ही उद्धृत किया गया है । वेद और स्मृति में व्रात्य यद्यपि वेद में और स्मृति में व्रात्यविषयक अन्तर है। क्योंकि वेद में व्रात्य को परमेश्वर, आत्मद्रष्टा, मुनि के रूप में चित्रित किया गया है । जो अक्षरशः जैन तीर्थंकर का वर्णन है । किन्तु स्मृति के युग में आर्य जाति में धर्म के नाम से संकीर्णता घुस जाने के कारण व्रात्य को निन्दित तक बताया गया है और यह सम्भव भी है। क्यों कि जैनशास्त्रों में अरिहन्तों का श्रावकों के प्रति (मनुष्य के लिये ) गौरवमय उच्चारण “देवानुप्रिय" रहा । जिसका सामान्य अर्थ देवताओं से भी अधिक प्यारे लगनेवाले मानव होता है। किन्तु पाणिनीय व्याकरण में साम्प्रदायिक संकीर्णता के कारण " देवानां प्रियः " का अर्थ मूर्ख जड़ किया गया है। . अतः भारत में यज्ञ और व्रत की खोज वेदों के आधार पर अधिक प्रामाणिक रूप से की जा सकती है। ब्राह्मण और श्रमण का संघर्ष तो वेदों के युग में ही चल रहा था, किन्तु वेदों में दोनों ( यज्ञ, व्रत ) सम्बन्धी सूक्तों का संग्रह हुवा है और साथ में उनके विवादों का भी उल्लेख हैं । जैसे:- हे इन्द्र ! इन व्रतधारी यज्ञविरोधी दस्युओं को शीघ्र मार, नाश कर, इसी तरह अन्य भी मंत्र हैं । जिन से यह प्रमाणित होता है कि व्रात्यों के विषय में सुन्दर असुन्दर उभय प्रकार का साहित्य वेदों में संग्रहीत है । इस का कारण है व्रात्यों का यज्ञविरोध । माना कि यज्ञ और व्रत भारतीय संस्कृति के मुख्य प्रेरणास्त्रोत रहे हैं। और दोनों में ही उत्सर्ग की प्रधानता रही है । किन्तु यज्ञ में बाह्य वस्तुओं का समर्पण और ऐन्द्रिय सुखैषणा काम करती है । व्रतों में बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा आत्मोत्सर्ग को प्रधानता दी गई है । अतः जैन धर्म में संयम, नियमन, परिणह, कष्ट सहिष्णुता और इच्छानिरोध को ही मुख्यता दी गई है। __ व्रती का लक्ष्य एक मात्र आत्मसाक्षात्कार, अन्तर्नाद और परमात्मपद प्राप्ति है और याज्ञिक का ध्येय स्वर्ग तथा लोकैषणाप्राप्ति के लिये अनुष्ठान और सोमपान की ओर प्रवृत्त होना है। ___ यह अन्तर और बाह्य का विरोध है । व्रात्य पशुओं का वध यज्ञ में होता देख नहीं। १ अकर्मा दस्युरमितो अयन्तु।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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