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________________ अपभ्रंश साहित्य का मूल्यांकन देवेन्द्रकुमार एम. ए. अध्यक्षः हिन्दी विभाग. डिग्री कालेज, अलमोड़ा अपभ्रंश भाषा की खोज-खबर १८८६ ई० में शुरू हुई और साहित्य की १९३४ में । तब से अबतक बहुमूल्य और पर्याप्त अपभ्रंश साहित्य प्रकाश में आया है। प्रस्तुतः प्रबंध का लक्ष्य उसी का साहित्यिक आलौड़न और मूल्यांकन करना है। अपभ्रंश वैसे प्राकृत की अंतिम अवस्था है, परन्तु उस का अपभ्रंश यह नाम उसे प्राकृत से कुछ भिन्न कर देता है । और वह आ० भा० आ० भाषाओं के अधिक निकट ले आता है। प्राचीन उल्लेख और उपलब्ध अप० साहित्य से यह सिद्ध है कि अपभ्रंश पर पश्चिमी प्रभाव प्राकृतों की अपेक्षा अधिक है । अपभ्रंश साहित्य का काल और राजपूत काल एक साथ चलते हैं। मेरा निष्कर्ष है कि भरतमुनि की आभिरोक्ति वास्तव में पश्चिमी भारत की एक बोली थी जो राजपूत काल में व्यापक भाषा बन बैठी । जिस प्रकार संस्कृत आर्य-अनार्य संघर्ष और संगम से निकली, पालि-प्राकृत बुद्ध, महावीर की धार्मिक क्रांति से उठ खड़ी हुई; उसी तरह अपभ्रंश भी गुप्तोत्तर काल की राजनैतिक उथलपुथल में महत्व पा गई। यह कोरी काव्य भाषा नहीं, अपितु लोकजीवन की ठोस भाषा रही। कवि स्वयंभू ने एक रूपक में बताया है कि वटरूपी उपाध्याय, पक्षीरूपी शिष्य को · कक्का-किक्की, ' आदि वर्णमाला पढ़ा रहा था । बारह खड़ी की यह लोकभाषा अपभ्रंश ही थी, क्योंकि इस प्रकार की ध्वनियां स्वयं उक्त कवि के पउमचरिउ में हैं । यह धारणा भी निर्मूल है कि संस्कृत-वैयाकरणों ने इस भाषा को घृणा से अपभ्रंश कहा था । अपभ्रंश-कवियों ने इसे अपभ्रंश नहीं कहा ! क्यों कि पुण्यदंतने महापुण्य में अवहंश ( अपभ्रंश साहित्य ) के अध्ययन-अध्यापन का उल्लेख किया है । स्वरूप और विद्या की दृष्टि से इस का बहुत सीमित साहित्य है । इस की अपेक्षा प्राकृतों का क्षेत्र विस्तृत था। भरतमुनि के अनुसार आमिरोक्ति का नाटक में प्रयोग हो सकता था। परंतु नाटकों में प्राकृत ही रूढ़ रही । इसलिए अपभ्रंश-काव्यभाषा ही रही। वैसे स्वयंम् और पुष्पदंतने अपभ्रंश के दूसरे काव्य रूपों का उल्लेख किया है, परंतु वे अनुपलब्ध हैं। साधारणतया अपभ्रंश-साहित्य का युग ७ वीं से १२ वीं सदी तक है । वैसे बोली रूप में इसका अस्तित्व दो चार सदियों पूर्व से था । काव्य-रचना भी इस में हो रही थी। स्वयंभू ने धनदेव, धइल, अन्जदेव, गाइंद आदि अपभ्रंश-कवियों का निर्देश किया है।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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