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और जैनाचार्य पू. उपाध्याय श्री मेघविजयजी गुम्फिता अर्हद्गीता । ४८५
" वैरं लक्ष्म्याः सरस्वत्या नैतत् प्रामाणिकं वचः । ज्ञानधर्मभृतो वश्या लक्ष्मीने जडरागिणी ॥ १३ ॥ ज्ञानी पापाद् विरतिभाग यः स वै पुरुषोत्तमः ।
तस्यैव वल्लभा लक्ष्मीः सरस्वत्येव देहभाक् " ॥ १४ ॥ अहंद्गीता में चर्चित विषय वाचक को आकर्षित कर सकें इस दृष्टि से उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ यथामति देने का प्रयत्न ही हमने किया है। अंतिम ३६ वें अध्याय के श्लोक २० में उन्होंने अपना नाम सूचित किया है
" छंदोविशारदैरेवदर्शि शिवशर्मणे ।
धर्मस्तस्मानित्यसुख श्रीमेघविजयोदयः ॥ २०॥" यह पुस्तक मूलतः धूलिया ( पश्चिम खानदेश ) से पत्राकार में छपाया हुआ है। यद्यपि छपाई सुंदर है, परन्तु उसमें अशुद्धि की मात्रा बहुत ही हैं । कोई विवेकी विद्वान् इसी ग्रंथ का शुद्ध रूप से पूर्ण श्रम, समय और योग्यता लगा कर पुनः संपादन करे और उसका वर्तमान भाषा में विवेचन करे तो यह पुस्तक महद् उपयोगी हो सके ऐसी संभावना है।