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और जैनाचार्य . लुकाशाह और उनके अनुयायी
४७३ बनाई जो जनयुग वर्ष ५ अंक १-२-३ के पृष्ठ ८८ में प्रकाशित हुई है। उसमें लिखा है कि:
वीर जिनेसर मुगतिई गया, सइ ओगणीस वरस जब थया । पणयालीस अधिक माजनइ, प्रागवाट पहिलइ सजनइ ॥१॥ लंका लीहानी उतपति, सीख्या बोल दस वीस नी छिति । मति आपणी करिउ विचार, मूलि कषाय वधारण हार ॥ २॥ तसु अनुवइ हउओ लाखणसीह, जिनवर तणी तीण लोपी लीह । चउपपदी कीघउ सिद्धान्त, करिउ सतां संसार अनंत ॥ ३॥ शिण व्याकरणिहि बालाबोध, सूत्र वात बे अरपि विरोध ।
करी चउपड़ा जण जण दया, लोक तणा तीण भावजि गया ॥ ४ ॥
सं० १६१७ ज्ये. शु. १५ बुधवार को कनकपुरी में रचित हीरकलशकृत कुमतिविध्वंसण चौपई में इस प्रकार वर्णन मिलता है:
इण मतिनी संभलियो आदि, गुजर देशि अहमुदा वादि । लुंउकउ लेहउ तिहां किणि वसइ, मुनिवर परति लिखइ अहिनिसइ ॥९१ ।। पुस्तक लिखी लियइ मुहमदी, सुखद समाधी वसइ तिहां सदी । एक दिवस निसुणउ तसु वात, लिखतां पाना छोडिया सात ।। ९२ ।। मुणवर परतइ देखी चूक, लुका हाथि वेठि की भूक । रीसाणउ लेहउ मनमाहि, हुँका मति मंडिउ तिणि ठाहि ॥ ९३ ॥ संवत पनरह अट्ठोतरइ, जिनप्रतिमा पूजा परिहरह । आगम अरथ अवर परि कहइ, इण परि मिथ्यामति संग्रहइ ॥ ९४ ।। लखमसीह तसु मिलिउ सीस, वक्रमती नर बहुली रीस । बेउ मिली निषेधह दान, विनय विवेक न आषइ ध्यान ॥ ९५॥ पनरह सइ चउतीसइ समइ, गुरु विणि वेस धारिया अनुक्रमह ।
संघमांहि तिणि कारणि नहीं, वीतराग इम बोलइ सही ॥ ९६ ॥ दिगम्बर " भद्रबाहु चरित्र " में इस प्रकार लिखा है किः
मृते विक्रमभूपाले, सहा विशंतिसंयुते । दश पंच शताब्दाना-मतीत शृणुता परम ।।