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भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ जिन, जैनागम सठउ देव किस्युं करइ, वदति चपेट न देह । किसी कुबुद्धि तिसी दिइ, जिण बहु काल रुलेइ ॥ देश अवन्ती मइं सुण्युं, तिहिं मंडपगढ जोइ । तिहां वछि आती आविया, मिल्या लखमसी सोइ । लुंकह द्रव्य अपावि करि, लोभिई कीधउ अंध । लुका मत लेक भणी, पारिख उडिउ खंध ॥ पारिख हुअउ कुपारसी, जोइ रचिउ कुधर्म । पारिख किंपि न परखिउ, रयणरूप जिन धर्म ॥ लुंकड वात प्रकाशी इसी, तेहनउ शीस हुइ लखमसी
तेणइ बोल उथाप्या घणा, ते सघला जिनशासनतणा । उसके बाद लंका मत का खण्डन किया गया है। यह रचना जैनयुग पुस्तक ५ अंक ९-१० के पृष्ठ ३४० में प्रकाशित हो चुकी है । बीकानेर के उ. जयचंदजी के भंडार में हस्तलिखित वह प्रति भी विद्यमान है।
इसके बाद सं. १५४४ के लगभग खरतरगच्छ के कमलसंयमोपाध्याय ने सिद्धान्तसारोद्धार नामक ग्रन्थ बनाया जिस में लिखा गया है
संवत पनर अठोतरउ जाणि, लुकुं लेहउ मूलि लिखाणि । साधु निंदा अहनिशि करइ, धर्म धडाबंध ढीलउ धरह ॥ तेहनइ शिष्य मिलिउ लखमसी, तेहनी बुद्धि हियाथी खिसी । टालइ जिनप्रतिमा नइ दान, दया दया करि टालइ दान ॥ टालइ विनय विवेक विचार, टालइ सामायक उच्चार । पडिकमणा नउं टालइ नाम, भामह पड़िया घणा तिणिठाम ॥ संवत पनर नु वीसइ कालि, प्रगट्या वेशधार समकालि । दया दया पोकारइ धर्म, प्रतिमा निंदी बांधइ कम ॥ एहवउ हुयउ पिरोजजिखान, तेहनइ पातिसाह दिइ मान । पार देहरा नइ पोसाल, जिनमत पीड़इ दुसमाकाल ॥ लुका नह ते मिलिउ संजोग, ताव मांहि जिम सीसक रोग ।
डगमगि पड़िउ सगलउ लोक, पोसालइ आवह पणि फोक ।। लावण्यसमय की सिद्धान्तचौपई के अनुकरण में बीका ने असूत्र-निराकरण बत्तीसी