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और जैनाचार्य श्रीआर्यरक्षितसूरि ।
४५३ राजतरङ्गिणी, कादम्बरी, कथासरित्सागर, मेघदूत, विविधतीर्थकल्प, पुराण, महाभारत आदि विविध ग्रन्थों एवं काव्यों में इस नगर का जिस रीति से वर्णन किया गया है-उसके आधार पर यह कहना सर्वांशतः समुचित है कि यह नगर कितना वैभवशाली एवं समृद्ध. समुन्नत था । महाकवि कालीदास *इस नगर के बड़े प्रशंसक रहे हैं। ऐसा उनके प्रथों से ही विदित होता है।
अभी तक प्रायः अधिकांश अध्येता यही जानते हैं कि इस नगर का वर्णन उपयुक्त ग्रन्थों में ही उपलब्ध होता है। उपरांत इसके भी इस प्राचीन नगर का पुरातनकालीन सुरुचिपूर्ण विशद वर्णन जैन ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है । आवश्यककथा, दशवैकालिक, आवश्यकचूर्णि, उत्तराध्ययनसूत्र, नन्दीसूत्रसवृत्ति, विविधतीर्थकल्प आदि विविध जैन ग्रन्थों में 'दशपुर' का अत्यन्त ही अनुपम एवं रुचिपूर्ण शैली से वर्णन किया गया है। इन ग्रन्थों में अभिलिखित वर्णनों के आधार पर यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि 'दशपुर' में जैनधर्म एवं जैनदर्शन का कितना प्रबल प्रचार एवं सुदृढ़ अस्तित्व था !
___ " नन्दीसूत्रसवृत्ति " से यह सुस्पष्टतया प्रतीत होता है कि वीरनिर्वाण संवत् ५८४ में इसी नगर में आर्यरक्षित सूरि ' नाम के एक सुप्रसिद्ध जैनाचार्य हो गये हैं, जो अपने समय के उद्भट विद्वान् , सकल शास्त्रपारङ्गत एवं आध्यात्मिक तत्त्ववेत्ता थे। यही नहीं, यहां तक इन के वर्णन में उल्लेख किया गया है कि ये इतने प्रकाण्ड विद्वान थे कि अन्य कई गणों के ज्ञानपिपासु जैनसाधु आप के अन्तेवासी (विद्यार्थी) रह कर ज्ञान प्राप्त करते थे । उस समय आर्यरक्षितसूरि का शिष्य होना महान् भाग्यशाली होने का सूचक माना जाता था । फलतः आपके शिष्यों एवं विद्यार्थियों की संख्या का कोई पार ही नहीं था।
आर्यरक्षित सूरि का दशपुर ( आधुनिक मन्दसोर ) से घनिष्ठतम सम्बन्ध था । सुविज्ञ पाठकों की जानकारी के हेतु यदि प्रस्तुत पंक्तियों में आर्यरक्षितसूरि का जीवनगत वह ऐतिहासिक विवेचन, जिसका कि दशपुर से अभिन्न सम्बन्ध है, कर दिया जाय तो अधिक समुचित एवं सुसङ्गत होगा।
'दशपुर' में जब उदयन नामक राजा राज्य करता था, उस समय उसके एक पुरोहित ___* महाकवि कालिदास की जन्मभूमि की शोध में दशपुर का नाम भी विचारणीय है । ऐसा सुनने और जानने को मिला है। दशपुर के भाग्य में अगर यह गौरव लिखा गया तो दशपुर का मान फिर कितना ऊंचा उठ जायगा, कल्पनातीत है । लेखकने दशपुर को कालिदास की जन्म-भूमि ही लिख दिया था। नितांत प्रमाणों के अभाव में हम वह तो स्वीकार नहीं कर सकते थे। लेखक की भावना को प्रस्ताव रूप से रख देने में कोई आपत्ति नहीं। सं० दौलतसिंह,